सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

शब्दों का अर्थ कहाँ होता है...?

शब्दों का अर्थ
शब्दों में नहीं होता,
वरना
सभी समझते
सबके मन की बात...
ये अर्थ इशारों में भी नहीं होता,
वरना
कुछ भी रहता अनकहा
दो मन के बीच...
शब्दों का अर्थ
अक्सर खामोशी में भी नहीं होता,
वरना क्या मैं अनसुना रहता...
शब्दों का अर्थ तो
धारा-सा बहता है
मन से मन के बीच,
अगर जुड़ सकें उनके तार:
वही अनदेखे तार जिन्हें
भावना कहती है दुनिया,
जो अर्थ देती है शब्दों को
वरना
ख़ुद-से तो ये शब्द गूंगे हैं...!

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

शब्दों का अर्थ...!

शब्दों के अर्थ कितने अलग हो सकते हैं...
'दुःख' मेरे लिए: सबका गम,
'खुशी' तुम्हारे लिए: तुम्हारी दुनिया,
क्या कभी ये अर्थ एक हो सकेंगे...!

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

जिंदगी की किताब...!

जिंदगी की किताब
आज देखने का अवसर मिला तो
हैरान रह गया,
पीले पड़े, मुड़े-तुडे पन्ने,
आंसुओं के दाग...
मुरझाई पंखुडि़याँ
और दीमक-चटी जगहें
जहाँ कभी लिखा रहा होगा:
'खुशी'...!

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

ओ माझी रे...!

समय का स्वरुप...! (२)

आज हम अपनी चर्चा को आगे बढाते हैं...
समय के स्वरुप की हमारी पिछली चर्चा में मैंने समय की जो संभावित अवधारणा सामने रखी थी उसके अनुसार समय ३-विमाओं से बना है, ठीक वैसे ही जैसे कोई रस्सी। लेकिन समय का यह स्वरुप अनेक प्रश्न खड़े कर रहा था भविष्य-दर्शन के बारे में। जो लोग भविष्य-दर्शन जैसी किसी संभावना से इनकार करते हैं, उनके लिए इसका दूसरा स्वरुप: समय के परे यात्रा (टाइम ट्रेवल)।
मैं समय के n-विमाओं वाले स्वरुप की बात सोच रहा हूँ...एक सरल उदाहरण: एक नदी में अथाह जल-राशि बह रही है। बाहर से देखने पर लगता है की ये सारा जल एक ही है...किंतु ऐसा है क्या...! नहीं। उस अथाह जल-धारा में अनेक छोटी-छोटी जल-धाराएं समाहित हैं। इससे प्रकार से समय भी है। समय की एक अथाह राशि में यह ब्रह्माण्ड तैर रहा है। या दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे अनेकानेक ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं...technically, universes are embedded in the Time...टाइम ट्रेवल एक ब्रह्माण्ड से दूसरे में जाना है।
अब प्रश्न ये उठता है कि इन अनेकानेक ब्रह्माण्ड के बीच समय अलग-अलग कैसे बह रहा है। आख़िर क्या चीज है जिसने समय को स्वयं में समाहित कर रखा है, जैसे जल-राशि को नदी के दोनों पात बाँध कर रखते हैं। आख़िर जब सारी चीजें समय में ही समाहित हैं तो फिर इससे कौन बांधता है...? ये ठीक वैसी ही उलझन है जैसे एक ऐसे द्रव्य को रखने के लिए पात्र ढूढना जो सारी वस्तुओं को घोल देता है...! लेकिन समय के संदर्भ में एक उत्तर सूझ रहा है मुझे: समय को समय ही बांधता है। समय और समय की दो धाराओं के बीच अन्तर समय के बहने की गति का होता है। अत: अलग-अलग गतियों से बहकर और बंध कर समय ने अलग-अलग ब्रह्माण्ड ख़ुद में समाहित कर रखे हैं...!
समय के स्वरुप की ये अवधारणा उस समस्या का भी आंशिक हल दे दे रही है जिससे हमने समय के बारे में चर्चा शुरू की थी अर्थात भविष्य दर्शन की और उसे बदलने की। जब हम भविष्य देखते हैं तो दरअसल हम समय की एक दूसरी धारा में प्रवेश कर चुके होते हैं जो हमारी पुरानी धारा की तुलना में तेज गति से बह रही है।
लेकिन भविष्य को परिवर्तित कर पाना अभी भी मुझे सोचने पर मजबूर कर रहा है...
शेष चर्चा फिर कभी...!

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

समय का स्वरुप...!

मैं गहरी सोच में हूँ: क्या भविष्य का कोई अस्तित्व वर्तमान में भी है...? कभी-कभी हमें होने वाली घटनाओं का पूर्वाभाष हो जाता है इसका अर्थ ये हुआ कि जो होने वाला है उसका सूत्र पहले ही बुना जा चुका है यह कुछ-कुछ उसी प्रकार है जैसे कोई आँखों पर पट्टी बाँध कर एक रस्सी को हाथ में ले महसूस करे...जिसका हाथ जितना लंबा होगा, वह उस रस्सी की उतनी ही अधिक लम्बाई को महसूस कर सकेगा आँख खोलने पर भी उसे वह रस्सी दिखेगी क्यूँकि रस्सी का अस्तित्व हमारे महसूस करने की सीमा से कहीं अधिक है ऐसे ही समय एक रस्सी जैसा हो सकता है जिसका अस्तित्व हमारे महसूस करने की सीमा से कहीं अधिक है आँखें बंद कर रस्सी को महसूस करने वाला कभी-कभी अपने हाथों की लम्बाई की सीमा के परे भी जा सकता है, अगर रस्सी बीच से मोड़ दी जाई तो....! इसी प्रकार कभी-कभी हमारा मन समय को मोड़ उसके परे निकल जाता है ऐसी दशा में वह जो महसूस करता है वो समय का वह अंश होता है जो अभी आना शेष है यही पूर्वाभाष है
अब थोड़ा आगे सोचते हैं...अगर हमने आने वाले समय को उसके आने से पहले-ही जान लिया तो क्या हम उसे बदल भी सकते हैं...! जैसे मैं देखा कि आने वाले समय में मेरे दोस्त की कलम उसके हाथ से छूट कर एक नदी में गिरने वाली है और ये कल ही होने वाला है मैंने अपने दोस्त को ये बताया और उसने अगले दिन नदी की सैर पर जाने से पहले अपनी कलम घर पर ही छोड़ दी जाहिर है अगर कलम है ही नहीं तो गिरेगी कैसे...? अगर मेरा दोस्त अपनी कलम गिरने से बचा पता है तो एक नया प्रश्न उठ खडा होता है: जो मैंने देखा था उसके अनुसार तो दोस्त की कलम इस समय नदी में होनी चाहिए थी किंतु ऐसा नहीं हुआ अर्थात हमने आने वाले समय को बदल दिया...! एक बार फिर से रस्सी वाले उदाहरण की बात करें तो रस्सी का जो भाग हमने महसूस किया था, वो दरअसल है ही नहीं तो फिर हमने उसे महसूस कैसे किया...? क्या एक बिन्दु के बाद रस्सी के दो अलग-अलग भाग हो जाते हैं...जिसमें से एक को मैंने महसूस किया और दूसरा फिर भी अनदेखा रहा...अगर मैंने भविष्य को देखने के बाद उसे बदल दिया तो वो भविष्य कैसे रहा...? दूसरी संभावना ये हो सकती है कि किसी प्रकार से मेरा देखा हुआ सच हो जाए अर्थात मेरे दोस्त की कलम नदी में गिर ही जाए इस संभावना में रस्सी तो ठीक-ठाक रहती है पर एक अलग प्रश्न खडा होता है: इस पूरे ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी हो रहा है और होने वाला है उसका खाका किसी ने पहले से ही खींच रखा है...! कोई शक्ति है जो समय को निर्धारित कर रही है, अब ये हमारे ऊपर है कि हम उस शक्ति को क्या नाम देते हैं
पहले वाली संभावना जहाँ भविष्य को देखने के बाद उसव बदलने की गुंजाईश है यह इंगित करती है कि समय की कुछ समानांतर धाराएं हैं और अगर हममें सामर्थ्य है तो हम अपनी मनचाही धारा के समय को चुन सकते हैं...! इसका अर्थ ये भी है कि जिस ब्रह्माण्ड में हम हैं यह ही एक अकेला ब्रह्माण्ड नहीं है बल्कि ऐसे अनगिनत ब्रह्माण्ड मौजूद हैं...!
हम आगे पुन: चर्चा करेंगे इस प्रसंग पर...!

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

शापित शिला...!


शापित शिला-सा मैं,
युग-युग से बैठा
तुम्हारी प्रतीक्षा में मेरे राम...
पर,
तुम्हें नहीं आना था
और तुम नहीं आए...!