शुक्रवार, 27 मार्च 2009

नियति

माथे पर खुदी लकीरें,
या फिर किसी अनदेखे भगवान् की बही में दर्ज उधार,
जाने क्या है जो ग़लत है
और यही ग़लत चुभ रहा है मुझे
मेरी आत्मा को भेद कर...
अस्तित्व के आर-पार निकला हुआ एक शूल-सा,
दर्द से घिरी रूह-सा बेचैन और एकाकी मैं
अनचाहा, अनसुना, गुमनाम राहों में भटकता मैं,
ऐसे ही गुजर जाऊंगा एक दिन चुपचाप
ये नियति है शायद मेरी...
पर ये क्यूं है...?

गुरुवार, 26 मार्च 2009

जिंदगी...

जिंदगी!
क्यूं उतर गया तेरा खुमार...
जैसे
शराब का उतरा हो नशा,
या
आख़िरी कश लेकर फेकीं सिगरेट से निकलता हो धुआँ...
किसी काम का नहीं...
कब मुड गयी तू जिंदगी
इन् गुमनाम राहों पर
जिन पर बस गर्द बिछी है
और बिछे हैं गम...

मंगलवार, 17 मार्च 2009

आजकल गुवाहाटी में धूल-भरे अंधड़ चल रहे हैंकल हमारे संस्थान में एक सेमिनार होने वाली थी पर हो सकी क्यूंकि वक्ता का वायुयान सका थामेरे लिए तो ये धूल और भी मुश्किल खडी कर दे रही है क्यूंकि मैं इसे बिल्कुल भी नहीं बर्दास्त कर पाताBold
ये अंधड़ अगर केवल बाहर ही चल रहे होते तो कोई बात थी...अन्दर भी काफी कुछ घुमड़-सा रहा हैजीवन के सभी रास्ते वक्त की धूल में खो गए से लग रहे हैं...मंजिल का तो पता है पर उस तक पहुँचने वाले रास्ते का नहीं...! जो राह नज आती है, उस पर बुल-डाग सरीखे पहरेदार बैठे हैं: 'रुको, रुको कहाँ जा रहे हो...? जानते नहीं कि ये रास्ता आम नहीं है...इस पर चलने के लिए नीला खून (Blue blood) चाहिए और तुम्हारा खून तो लाल है...फिर तुमने कैसे सोच लिया कि तुम इस राह पर कदम रख सकते हो...???' उन्हें क्या पता कि हम एक दिन कुछ ऐसे गुजरेंगे कि फिर वो राह हर किसी के लिए खुल जायेगी...! पर उस दिन के आने तक क्या करें...? बस मैं हूँ और मेरे सपने...हम चले जा रहे हैं उस राह की तलाश में जो हमें हमारी मंजिल तक ले जायेगी....!