सोमवार, 1 अक्टूबर 2007

थक गया हूँ...

थक गया हूँ मैं
बीच राह में ही,
देखने लगा हूँ पाँव के छालों को
रूक कर मैं
बीच राह में ही...!

एक जूनून था मुझे
चलते ही जाने का,
जहाँ ना पहुँचा हों कोई
दुनिया वहीँ बसाने का,

पर कितना अकेला हो गया हूँ
बीच राह में ही...!!

थक गया हूँ मैं...

सुनाता था हर सफ़र का
होता है एक अंत भी,
मैं चला ऐसे सफ़र पर
मंज़िल नहीं जिसकी कोई,
ख़्वाब सारे टूटे शीशे
हासिल रही बस धूल ही,
थक गया हूँ मैं...

नहीं साथ कोई आया,
किसी को अपना ना पाया,
मैं रहा बनकर सभी का
किन्तु खुद को छ्लते रहने से
थक गया हूँ मैं...

अंत कर...अब अंत कर
इस सफ़र का अंत कर...