शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

शुभ दीप पर्व

तमसोमा ज्योतिर गमय...

रविवार, 27 सितंबर 2009

कुछ लोग

चाहे कितने ही मेले जुटाएं,
चाहे लाख महफ़िल सजायें,
हर लम्हा तन्हा और अकेले
इस दुनिया रह जाते हैं
कुछ लोग...
दोस्त बन कर भी कहाँ
जुड़ पाते हैं
कुछ लोग...
जब साथ छोड़ कर चल देती है जिंदगी
हासिल कुछ भी नहीं
फ़क्त आवारगी,
फिर भी कहाँ
छोड़ पाते हैं जीना
कुछ लोग...

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

...?

कुछ लम्हे जो गुजर जाते हैं,
कुछ लोग जो हमसे
बिछड़ जाते हैं,
क्यूं याद आते हैं
इस तरह कि
फिर कुछ याद नहीं रहता...!
कभी वो लम्हे, वो लोग
फिर मिले तो
क्या याद रहेंगे...!!

शनिवार, 5 सितंबर 2009

क्या इंसान बने रहना इतना मुश्किल है...?

बहुत समय पहले दूरदर्शन पर एक सामाजिक संदेश आता था: 'जानवर बनना आसान हैं पर क्या इंसान बने रहना इतना मुश्किल है...?' उस समय मैं काफी कम उम्र का था किंतु उस संदेश की एक बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया था कि विपरीत परिस्थितियों में भी हमें अपना मनुष्यत्व नहीं खोना चाहिए क्यूंकि यही हमें जानवर से अलग करता है। ३१ अगस्त, २००९ को कुछ ऐसा देखा कि यह संदेश बरबस याद हो आया। मैं मुंबई आ रहा था और हमारी ट्रेन नासिक रोड स्टेशन पर खडी हुई। मैं अपने कोच से उतर कर प्लेट्फ़ार्म पर काफी लेने आया। जब काफी लेकर पलता तो देखता हूँ कि मेरे कोच के एक सुवेशित सज्जन एक गरीब व्यक्ति को पीटने के लिए उद्यत हो रह थे और वह व्यक्ति भी उन्हें जबाब देना चाहता था किंतु उसे एक ६/७ वर्ष का बच्चा पीछे धकेल कर झगडे महिला भी एसी २। से नीचे एक प्रौदा महिला भी एसी-२ के कोच से नीचे उतरी और उस आदमी को जनरल डिब्बे की तरफ़ चलने के लिए कहने लेगी। मैंने अन्य लोगों से पता किया तो मालूम हुआ कि वह व्यक्ति यह नहीं समझ पा रहा था कि उसे जनरल डिब्बे में जाना चाहिए और शायद वो 'पीये हुए था' अतः मेरे कोच के वो अत्यन्त सभ्य दिखने वाले सज्जन उस पर अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहे थे। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि जिसे मैं कल से ख़ुद नशे में धुत देख रहा हूँ (उन् सज्जन के पास जाने से ही शराब की जोरदार गंध आती थी) वो आज दूसरे को पीटना चाहता है क्यूंकि उसने शराब पी रखी है...? टी टी उसे ढंग से भी समझा सकता था कि उसे इस डिब्बे में बैठने की इजाजत नहीं है। क्या इंसान बने रहना उस स्थिति में इतना मुश्किल था...! मुझे उस आदमी की चिंता नहीं है और न ही उन सज्जन की। मुझे तो चिंता है उस छोटे बच्चे की जो आज अपने बड़े को झगडा करने से रोकने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रहा है। शायद उसके मन में हमारे इस समाज के लिए बहुत अच्छी भावनाएं न पनपें...अगर हम जानवर ही बनना चाहते हैं तो कम से आने वाली पीढी के सामने तो ऐसा न करें। मैं ये बिल्कुल नहीं कहता कि उस व्यक्ति को भी हमें सादर एसी-२ में स्थान दे देना चाहिए था किंतु जो प्रतिक्रिया लोगों द्बारा दिखाई गयी यदि उससे बचा जा सकता तो कहीं अधिक बेहतर होता...!

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

मोहे ब्रज बिसरत नहीं...

गोकुल के दिनों को याद करते हुए कृष्ण ने एक बार उद्धव से कहा:
'उद्धव मोहे ब्रज बिसरत नाही
हंस सुता की सुंदर कगरी
और वृक्षं की छाहीं...'
और यह भी सर्वविदित है कि कृष्ण एक बार गोकुल को छोड़ने के बाद दुबारा पलट कर वहां कभी नहीं गए। आख़िर ये क्या बात हुई कि आप हर किसी से कहते फिर रहे हैं कि आपको आपकी पुराणी जगह भुलाए नहीं भूलती पर आप पलट कर वहां नहीं जाते जबकि आपके लिए ये सर्वथा संभव था। मैं सोचा करता था कि इसके पीछे क्या राज रहा होगा...! और ये राज जब मुझ पर खुला तो मैं कृष्ण की दूरदर्शिता और सम्वेंदनशीलता का कायल हुए बिना न रह सका।
मुझे मेरे उस संस्थान में जहाँ से मैंने पी एच डी की हैं, एम फिल (विकाश अद्ध्य्यन) के पाठ्यक्रम निर्माण में कुछ सहायता के लिए बुलाया गया। जब मैं संस्थान (जी बी पन्त समाज विज्ञान संस्थान) में पहुँचा तो पुरा दिन तो बहुत व्यस्त रहा। जब शाम हुई तो मुझे याद आया कि इसी जगह पर मेरे साथ कल कितने लोग थे जिनसे कहे-अनकहे जाने कितनी रिश्ते जुड़ गए थे...जाने कितने सपने बिखरे थे इन् राहों में...गुलमोहर के फूल अपने में कितनी कहानियाँ लपेटे हुए थे और ये अमलताश जाने किसका श्रींगार करने की हसरत दिल में बसाए युगों से चुपचाप खड़े थे...! और इन् सबके बीच यादों को गर्म कम्बल की तरह कसकर लपेटे खडा था मैं...लग रहा था मैं क्यूं वापस आया...? मन में दोनों भाव एक साथ विद्यमान थे: 'मोहे ब्रज बिसरत नहीं...' और ब्रज में आने के बाद का सूनापन...!
जीवन कैसा अजीब है न...!!!

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

मैं...

वक्त की आँखों में छलक आयी आंसू की बूँद-सा मैं,
देख रहा हूँ समय की चाल,
जो भरता हुआ लंबे-लंबे डग
मुझसे परे जा रहा है...!

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

नियति

माथे पर खुदी लकीरें,
या फिर किसी अनदेखे भगवान् की बही में दर्ज उधार,
जाने क्या है जो ग़लत है
और यही ग़लत चुभ रहा है मुझे
मेरी आत्मा को भेद कर...
अस्तित्व के आर-पार निकला हुआ एक शूल-सा,
दर्द से घिरी रूह-सा बेचैन और एकाकी मैं
अनचाहा, अनसुना, गुमनाम राहों में भटकता मैं,
ऐसे ही गुजर जाऊंगा एक दिन चुपचाप
ये नियति है शायद मेरी...
पर ये क्यूं है...?

गुरुवार, 26 मार्च 2009

जिंदगी...

जिंदगी!
क्यूं उतर गया तेरा खुमार...
जैसे
शराब का उतरा हो नशा,
या
आख़िरी कश लेकर फेकीं सिगरेट से निकलता हो धुआँ...
किसी काम का नहीं...
कब मुड गयी तू जिंदगी
इन् गुमनाम राहों पर
जिन पर बस गर्द बिछी है
और बिछे हैं गम...

मंगलवार, 17 मार्च 2009

आजकल गुवाहाटी में धूल-भरे अंधड़ चल रहे हैंकल हमारे संस्थान में एक सेमिनार होने वाली थी पर हो सकी क्यूंकि वक्ता का वायुयान सका थामेरे लिए तो ये धूल और भी मुश्किल खडी कर दे रही है क्यूंकि मैं इसे बिल्कुल भी नहीं बर्दास्त कर पाताBold
ये अंधड़ अगर केवल बाहर ही चल रहे होते तो कोई बात थी...अन्दर भी काफी कुछ घुमड़-सा रहा हैजीवन के सभी रास्ते वक्त की धूल में खो गए से लग रहे हैं...मंजिल का तो पता है पर उस तक पहुँचने वाले रास्ते का नहीं...! जो राह नज आती है, उस पर बुल-डाग सरीखे पहरेदार बैठे हैं: 'रुको, रुको कहाँ जा रहे हो...? जानते नहीं कि ये रास्ता आम नहीं है...इस पर चलने के लिए नीला खून (Blue blood) चाहिए और तुम्हारा खून तो लाल है...फिर तुमने कैसे सोच लिया कि तुम इस राह पर कदम रख सकते हो...???' उन्हें क्या पता कि हम एक दिन कुछ ऐसे गुजरेंगे कि फिर वो राह हर किसी के लिए खुल जायेगी...! पर उस दिन के आने तक क्या करें...? बस मैं हूँ और मेरे सपने...हम चले जा रहे हैं उस राह की तलाश में जो हमें हमारी मंजिल तक ले जायेगी....!

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

शब्दों का अर्थ कहाँ होता है...?

शब्दों का अर्थ
शब्दों में नहीं होता,
वरना
सभी समझते
सबके मन की बात...
ये अर्थ इशारों में भी नहीं होता,
वरना
कुछ भी रहता अनकहा
दो मन के बीच...
शब्दों का अर्थ
अक्सर खामोशी में भी नहीं होता,
वरना क्या मैं अनसुना रहता...
शब्दों का अर्थ तो
धारा-सा बहता है
मन से मन के बीच,
अगर जुड़ सकें उनके तार:
वही अनदेखे तार जिन्हें
भावना कहती है दुनिया,
जो अर्थ देती है शब्दों को
वरना
ख़ुद-से तो ये शब्द गूंगे हैं...!

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

शब्दों का अर्थ...!

शब्दों के अर्थ कितने अलग हो सकते हैं...
'दुःख' मेरे लिए: सबका गम,
'खुशी' तुम्हारे लिए: तुम्हारी दुनिया,
क्या कभी ये अर्थ एक हो सकेंगे...!

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

जिंदगी की किताब...!

जिंदगी की किताब
आज देखने का अवसर मिला तो
हैरान रह गया,
पीले पड़े, मुड़े-तुडे पन्ने,
आंसुओं के दाग...
मुरझाई पंखुडि़याँ
और दीमक-चटी जगहें
जहाँ कभी लिखा रहा होगा:
'खुशी'...!

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

ओ माझी रे...!

समय का स्वरुप...! (२)

आज हम अपनी चर्चा को आगे बढाते हैं...
समय के स्वरुप की हमारी पिछली चर्चा में मैंने समय की जो संभावित अवधारणा सामने रखी थी उसके अनुसार समय ३-विमाओं से बना है, ठीक वैसे ही जैसे कोई रस्सी। लेकिन समय का यह स्वरुप अनेक प्रश्न खड़े कर रहा था भविष्य-दर्शन के बारे में। जो लोग भविष्य-दर्शन जैसी किसी संभावना से इनकार करते हैं, उनके लिए इसका दूसरा स्वरुप: समय के परे यात्रा (टाइम ट्रेवल)।
मैं समय के n-विमाओं वाले स्वरुप की बात सोच रहा हूँ...एक सरल उदाहरण: एक नदी में अथाह जल-राशि बह रही है। बाहर से देखने पर लगता है की ये सारा जल एक ही है...किंतु ऐसा है क्या...! नहीं। उस अथाह जल-धारा में अनेक छोटी-छोटी जल-धाराएं समाहित हैं। इससे प्रकार से समय भी है। समय की एक अथाह राशि में यह ब्रह्माण्ड तैर रहा है। या दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे अनेकानेक ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं...technically, universes are embedded in the Time...टाइम ट्रेवल एक ब्रह्माण्ड से दूसरे में जाना है।
अब प्रश्न ये उठता है कि इन अनेकानेक ब्रह्माण्ड के बीच समय अलग-अलग कैसे बह रहा है। आख़िर क्या चीज है जिसने समय को स्वयं में समाहित कर रखा है, जैसे जल-राशि को नदी के दोनों पात बाँध कर रखते हैं। आख़िर जब सारी चीजें समय में ही समाहित हैं तो फिर इससे कौन बांधता है...? ये ठीक वैसी ही उलझन है जैसे एक ऐसे द्रव्य को रखने के लिए पात्र ढूढना जो सारी वस्तुओं को घोल देता है...! लेकिन समय के संदर्भ में एक उत्तर सूझ रहा है मुझे: समय को समय ही बांधता है। समय और समय की दो धाराओं के बीच अन्तर समय के बहने की गति का होता है। अत: अलग-अलग गतियों से बहकर और बंध कर समय ने अलग-अलग ब्रह्माण्ड ख़ुद में समाहित कर रखे हैं...!
समय के स्वरुप की ये अवधारणा उस समस्या का भी आंशिक हल दे दे रही है जिससे हमने समय के बारे में चर्चा शुरू की थी अर्थात भविष्य दर्शन की और उसे बदलने की। जब हम भविष्य देखते हैं तो दरअसल हम समय की एक दूसरी धारा में प्रवेश कर चुके होते हैं जो हमारी पुरानी धारा की तुलना में तेज गति से बह रही है।
लेकिन भविष्य को परिवर्तित कर पाना अभी भी मुझे सोचने पर मजबूर कर रहा है...
शेष चर्चा फिर कभी...!

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

समय का स्वरुप...!

मैं गहरी सोच में हूँ: क्या भविष्य का कोई अस्तित्व वर्तमान में भी है...? कभी-कभी हमें होने वाली घटनाओं का पूर्वाभाष हो जाता है इसका अर्थ ये हुआ कि जो होने वाला है उसका सूत्र पहले ही बुना जा चुका है यह कुछ-कुछ उसी प्रकार है जैसे कोई आँखों पर पट्टी बाँध कर एक रस्सी को हाथ में ले महसूस करे...जिसका हाथ जितना लंबा होगा, वह उस रस्सी की उतनी ही अधिक लम्बाई को महसूस कर सकेगा आँख खोलने पर भी उसे वह रस्सी दिखेगी क्यूँकि रस्सी का अस्तित्व हमारे महसूस करने की सीमा से कहीं अधिक है ऐसे ही समय एक रस्सी जैसा हो सकता है जिसका अस्तित्व हमारे महसूस करने की सीमा से कहीं अधिक है आँखें बंद कर रस्सी को महसूस करने वाला कभी-कभी अपने हाथों की लम्बाई की सीमा के परे भी जा सकता है, अगर रस्सी बीच से मोड़ दी जाई तो....! इसी प्रकार कभी-कभी हमारा मन समय को मोड़ उसके परे निकल जाता है ऐसी दशा में वह जो महसूस करता है वो समय का वह अंश होता है जो अभी आना शेष है यही पूर्वाभाष है
अब थोड़ा आगे सोचते हैं...अगर हमने आने वाले समय को उसके आने से पहले-ही जान लिया तो क्या हम उसे बदल भी सकते हैं...! जैसे मैं देखा कि आने वाले समय में मेरे दोस्त की कलम उसके हाथ से छूट कर एक नदी में गिरने वाली है और ये कल ही होने वाला है मैंने अपने दोस्त को ये बताया और उसने अगले दिन नदी की सैर पर जाने से पहले अपनी कलम घर पर ही छोड़ दी जाहिर है अगर कलम है ही नहीं तो गिरेगी कैसे...? अगर मेरा दोस्त अपनी कलम गिरने से बचा पता है तो एक नया प्रश्न उठ खडा होता है: जो मैंने देखा था उसके अनुसार तो दोस्त की कलम इस समय नदी में होनी चाहिए थी किंतु ऐसा नहीं हुआ अर्थात हमने आने वाले समय को बदल दिया...! एक बार फिर से रस्सी वाले उदाहरण की बात करें तो रस्सी का जो भाग हमने महसूस किया था, वो दरअसल है ही नहीं तो फिर हमने उसे महसूस कैसे किया...? क्या एक बिन्दु के बाद रस्सी के दो अलग-अलग भाग हो जाते हैं...जिसमें से एक को मैंने महसूस किया और दूसरा फिर भी अनदेखा रहा...अगर मैंने भविष्य को देखने के बाद उसे बदल दिया तो वो भविष्य कैसे रहा...? दूसरी संभावना ये हो सकती है कि किसी प्रकार से मेरा देखा हुआ सच हो जाए अर्थात मेरे दोस्त की कलम नदी में गिर ही जाए इस संभावना में रस्सी तो ठीक-ठाक रहती है पर एक अलग प्रश्न खडा होता है: इस पूरे ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी हो रहा है और होने वाला है उसका खाका किसी ने पहले से ही खींच रखा है...! कोई शक्ति है जो समय को निर्धारित कर रही है, अब ये हमारे ऊपर है कि हम उस शक्ति को क्या नाम देते हैं
पहले वाली संभावना जहाँ भविष्य को देखने के बाद उसव बदलने की गुंजाईश है यह इंगित करती है कि समय की कुछ समानांतर धाराएं हैं और अगर हममें सामर्थ्य है तो हम अपनी मनचाही धारा के समय को चुन सकते हैं...! इसका अर्थ ये भी है कि जिस ब्रह्माण्ड में हम हैं यह ही एक अकेला ब्रह्माण्ड नहीं है बल्कि ऐसे अनगिनत ब्रह्माण्ड मौजूद हैं...!
हम आगे पुन: चर्चा करेंगे इस प्रसंग पर...!