माथे पर खुदी लकीरें,
या फिर किसी अनदेखे भगवान् की बही में दर्ज उधार,
जाने क्या है जो ग़लत है
और यही ग़लत चुभ रहा है मुझे
मेरी आत्मा को भेद कर...
अस्तित्व के आर-पार निकला हुआ एक शूल-सा,
दर्द से घिरी रूह-सा बेचैन और एकाकी मैं
अनचाहा, अनसुना, गुमनाम राहों में भटकता मैं,
ऐसे ही गुजर जाऊंगा एक दिन चुपचाप
ये नियति है शायद मेरी...
पर ये क्यूं है...?
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