मंगलवार, 6 नवंबर 2007

जा-जाकर लौटते मौसम,
रूक-रूक कर चलते कदम,
यही जीवन है क्या..??

सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

थक गया हूँ...

थक गया हूँ मैं
बीच राह में ही,
देखने लगा हूँ पाँव के छालों को
रूक कर मैं
बीच राह में ही...!

एक जूनून था मुझे
चलते ही जाने का,
जहाँ ना पहुँचा हों कोई
दुनिया वहीँ बसाने का,

पर कितना अकेला हो गया हूँ
बीच राह में ही...!!

थक गया हूँ मैं...

सुनाता था हर सफ़र का
होता है एक अंत भी,
मैं चला ऐसे सफ़र पर
मंज़िल नहीं जिसकी कोई,
ख़्वाब सारे टूटे शीशे
हासिल रही बस धूल ही,
थक गया हूँ मैं...

नहीं साथ कोई आया,
किसी को अपना ना पाया,
मैं रहा बनकर सभी का
किन्तु खुद को छ्लते रहने से
थक गया हूँ मैं...

अंत कर...अब अंत कर
इस सफ़र का अंत कर...


गुरुवार, 20 सितंबर 2007

रे मन...! (2)

खुद को छलना छोड़ दे मन
प्यार देकर दर्द लेना,
दूसरों के जीवन की खातिर
मौत से कर्ज़ लेना
छोड़ दे रे मन...!

ये नहीं तेरा ठिकाना
साँझ ढलते लौट जाना,
राह की परछाइयों में
व्यर्थ तेरा दिल लगाना,
कुछ नहीं हासिल अरे मन...!!
खुद को छलना छोड़ दे मन...

Will come more of it as the pain shall rise...

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

Bhrastaachaar ke khilaaf...

आओ बहमन, आओ ठाकुर,
आओ कोली और कलवार,
लाला जी तुम भी आ जाओ,
आओ भंगी और चमार...
अलग-अलग है जात हमारी,
एक लहू हम सब का है;
और एक है शत्रु हमारा: शेषनाग-सा भ्रष्टाचार....!

आशा की कश्ती में छेदा
डगमग नइया बीच मझार,
रक्षक ही भक्षक बन बैठा
व्यापा चहुँ दिश हाहाकार;
डाकू सारे नेता बन गए
सो मत जाना पहरेदार...!!
आओ बहमन, आओ ठाकुर......



To be completed later....

बुधवार, 5 सितंबर 2007

तुम...(9)

रग-रग में दौड़ती तेरी याद,

अब खौलने लगी है...

सहा नहीं जाता

अब ये ताप अंतस का...!



झुलस रहीं हैं कलियाँ सपनों की,

नेह-सोते सूखे सभी...

और

फैलता आ रहा एक मरुथल

मन में कहीं...!!



छा जाओ फिर से

बनकर गदराई बदरी
मेरे तन पर,


मन पर,

जीवन पर....!!!

शुक्रवार, 24 अगस्त 2007

and the time is...

शुभ जन्मदिन...

ख़ुशी छलके, रंग झलके,
पूरे हों आपके सपन;
नाजुक क़दमों पर चलकर आये
सफ़लता आपके आंगन ।

अँधेरे सब दूर हों
रोशनी भरपूर हो;
दिव्यता से आच्छादित हो
तन-मन-जीवन ॥

मधुर गीत ओठों पे
नए स्वप्न आंखों में;
मधुमय बने ये
सारे पल-छिन ।।।

और क्या कहूँ
शुभ हो आपको
आपका ये जन्मदिन...!!!


For a friend on her birthday....

सोमवार, 20 अगस्त 2007

Trip to Ranchi

I made a trip to Ranchi, Kharkhand for an Interview at JPSC.
The place is so scenic...
I was enthralled...

गुरुवार, 16 अगस्त 2007

तुम...(8)

तुम


बसे मेरे मन में
ज्यूँ ईश्वर का रुप,


पर ये तो मंदिर नहीं...


जहाँ लोग आयें,


सिर झुकाएं...


मांगे दुआ, पूरे हों उनके सपन...





ये तो है मयखाना
जहाँ,


आते हैं उदास पर जाते हैं झूमकर लोग...


पीछे रहा जाते हैं:


कुछ टूटे प्याले,


खाली बोतल,


और,


टूटे सपन...!!!

शनिवार, 21 जुलाई 2007

तूने मुझे क्या दिया रे मन...!

तूने मुझे क्या दिया रे मन...!
पराया दर्द,
पराई आस,
और उलझन...

अपना कुछ था नहीं,
पराया कोई रह नहीं,
शेष कुछ बचा नहीं...
हाथ आये तो बस
आंसू छलकाते नयन...!

दर्द सारी दुनिया का
तूने अपना कर लिया,
दुनिया-भर के आंसू दिल में
मोती-सा भर लिया,
अपनी खुशियाँ बाँट सबको
गया रिक्तपानि बन...!!

छोड़ कर सब चल दिए
राह में जो भी मिले,
तू सभी का हो गया
पर तू तेरा किसको कहे॥
साथ बस यादें रहीं
मकड़जाले बन...!!!

उम्र-भर छलता रहा
मुझको तू ओ मेरे मन...
व्यर्थ गया, व्यर्थ गया, व्यर्थ गया
ये जीवन...!!

तुम...(७)

कितने कम फूल

बचे हैं गुलमोहर के...!

कितनी कम साँसे मेरे पास,

फूल ज्यादा हैं या

साँसे कम, कौन जाने;



बस एक इंतज़ार:

'काश,
लौट आते कहीं से
तुम,

चाहे कोई नया इल्ज़ाम
देने के लिए ही सही...!'

गुरुवार, 19 जुलाई 2007

Why I’m not a Social Scientist...

Yes, you may be disappointed but I’m not a Social Scientist but an Economist.
May be the origin of the word “Social Scientist” is accidental. When people indulge too much in others’ discipline, often at the cost of their own, they become jack of all trades (?) but master of NONE. Anyone having an affair with Somrus knows what the hells breaks loose when a bad cocktail attacks your head. They vomit incessantly (sic). Since they have reached the limit of their absorbing capacity and they can’t afford to have more, they start scolding the wine, the bartender, all and sundry. If you try to pacify the now, you are just inviting the bull to your back. They’ll never admit that now they can’t digest any more rather they proclaim that the wine was of second or third rate, the bar-tender was loggerhead, etc, etc. You can’t challenge them about their knowledge about wine at this moment, as the incoherence make them omniscient too…!
Similar is the situation when one couldn't digest a bad cocktail of several subjects. They have reached the limit of their absorbing capacity of their brain. At this point of saturation, everything becomes fuzzy and incoherent. Enjoying this state of self-proclaimed bliss, they discover that they are Social Scientists…now they have entered a perpetual state of incoherence and fuzziness. A few noteworthy symptoms of this state are:

  • People disbelieve every logical concept and conclusion as they’re too obvious to be true;
  • They start looking (better, cooking) for links with a topic which were never in existence. Or in plain English, they look between the lines when there are no lines to look at all;
  • They often proclaim themselves to be Omniscient and all others as ignorant. So by applying the reflexivity and transitivity axioms, every social scientist is ignorant (according to other fellow social scientists) and omniscient (as per him). Isn't it a rare phenomenon of being at the extremes simultaneously? The catch is in the frame of reference;
  • They think that since they’re omniscient, their opinion on any subject is final and binding. Anyone who dares to differ must be thrown away to the Arabian Sea;
  • If they come to discuss anything with a logical person, soon they take it as an argument, a challenge to their authority and now they’ll never agree with other’s point of view, whatever it may be. But don’t panic when they, at the very next moment, rephrase your logic in their words. Don’t ever try to tell them that you were saying the same as they’ll never agree about any possible similarity between these two arguments.

    Should I hope that by now you would have understood why I'm not a Social Scientist...!!!

शुक्रवार, 13 जुलाई 2007

मोड़...!

वहीँ खड़ा है गुलमोहर,
वैसे-ही महक रही रातरानी आज तक,
अभी भी नजर में है
वो पथरीली रहा,
और
वो मोड़,
जहाँ मिले थे हम;

मानता ही नहीं
ये पगला मन:
'तुम मेरे थे ही नहीं
कभी...'

कलेजे से लगाए बैठा है
एक दम तोड़ती आस:
'कभी तो
लौट आओगे तुम
मेरे ही पास...
पीछे सारी दुनिया छोड़...!'

इसी पागलपन में
खंगालता चल रहा हूँ मैं,
हर गली,
हर राह,
हर मोड़...!!


सोमवार, 9 जुलाई 2007

तुम...(६)

जाड़े की रात में
कसकर लपेटे शाल-सी
लिपटी है तन्हाई
मेरी आत्मा से,

तुम्हारे न होने के शून्य से आच्छादित
मैं,
सोचता हूँ:
'कुछ अस्पष्ट-से नाम,
आढ़ी-तिरछी रेखाएँ
मिटा नहीं सकते जिन्हें
हम चाह कर भी,
क्यूं उकेर देता है समय
हमारे हृदय पर...!!!'

शनिवार, 7 जुलाई 2007

The black Book

I'm relishing "The Black Book", a wonderful novel by Orhan Pamuk. Though these days, I'm as busy as hell with writing a paper (sic) using the field data I've collected (have I told you people ever that I'm doing PhD in Economics), I still manage to revitalise myself with some good book like this one. Wait for its detailed review...it will come soon.
This book is provided to me again by Prof. Roy, who is my oasis in this otherwise parched desert (as for as literature is concerned). Long live Prof. Roy..and so to Orhan (And Orhan! keep writing).

मंगलवार, 26 जून 2007

रे मन...!

झुकना नहीं रे मन !

चाहे कड़ी धूप लगे,
क़दमों तले छाले पड़ें,
राह में थक कर
रुकना नहीं रे मन...!!

दूर तेरी मंज़िल है,
चलना तेरा हासिल है,
राह के छलावों में
फ़ंसना नहीं रे मन...!!

अंतस के ताप को,
दिए में ढाल ले,
अपने मनः-प्राण को
बाती-सा बाल ले,
आँधियों मे भी जल तू,
बुझना नहीं रे मन...!!!



To be completed later...

शुक्रवार, 22 जून 2007

तुम...(५)

कितना नजदीक ये आसमान,
चमकते थे मेरे सपने
तारों के साथ;

कितनी पास हर मंजिल,
कितनी छोटी राहें,
कितना गमकते फूल,
कैसा अंगार गुलमोहर,
सोने मढ़ा था अमलताश कल तक…!

कितने छोटे हुए ये हाथ,
टूटते तारे बने ख़्वाब,
दूर हों गयी हर मंजिल
और,
अंतहीन हर राह…
अब कहाँ फूल,
गुलमोहर उदास,
सिर झुकाए, एक-कोने
खड़ा गुमसुम अमलताश
आज क्यूं…?

‘क्या बदल गया रे मन…!’
मुड़कर देखा:
तुम नहीं थे साथ…!!!

मंगलवार, 19 जून 2007

सपने...(१)

हर कोई शामिल मेरे सपनों में:
भूखे की चाहत
एक अदद रोटी की,
गुड़िया-सी बिट्टी की
ख्वाहिशें छोटी-सी,
और सबसे छिपकर सिकुड़ी-सिमटी
तुम...!!!

चीर गयी दिल को
एक पीर खामोशी से
जब जाना,
किसी के भी सपनों में
मैं शामिल नहीं...!!!

शनिवार, 16 जून 2007

सच और मैं

रे सच!
फिर हार गया न…?
तू तो बना ही है
हारने के लिए.
अरे, अरे
तू तो रोने लगा!!
अच्छा..s--s--
बात दिल को लग गयी इसलिये;
अरे यार!
सदिया गुजर गईँ
पर तू रहा बेवकूफ का बेवकूफ,
अबे गधे
इतने दिन से लात-जूते खा रहा है
तब तो नहीं रोया
और आज,
आज तुझे मेरी छोटी-सी बात लग गयी!!
अच्छा सच!
सच बता,
क्या तू घुमक्कड़ था
जो चौदह बरस घूमता रहा वां में
वानर-भालुओं के साथ,
श्री-विहीन…?
कैसा लगा था तुझे
अनृत** पर विजय हेतु
शक्ति की चिरौरी करते…?
मगर,
तब तो तेरी आंखों से
चौदह बरस का निस्सहाय परिताप
नहीं निकला था
जल बनकर;
फिर आज क्यूं…?
यार सच!
देख मेरी आंखों में
और
सच बोल,
क्रॉस पर लटके-लटके
तुने सही होगी असीम पीड़ा
किन्तु
तब तो तू नहीं रोया;
फिर आज क्यूं…?
अच्छा चल
यही बता दे
विषपान करते समय
क्या छा गया था तेरी आंखों का आगे भी
मृत्यु का अँधेरा…?
किन्तु
तब तो तू हँसता रहा
फिर आज क्यूं रो रहा है…?
चल तुझे एक कहानी सुनाता हूँ…
ढ़ेर लग गया था मेरे पास
सिद्धांतो-आदर्शों और
सत्याप्रियता व न्यायप्रियता की लेमनचूसों का
जो बचपन से मुझे मिलती रहीं
गुरुजनों और परिजनों से
जब भी मैं
अन्याय के द्वारा लातियाये जाने पर
रोने लगा, तब.
मैंने सोचा,
शास्त्र कहते हैं…
अपरिग्रह
तो लाओ
आज बाँट दूँ
दो-चार लेमनचूस बच्चों और बूढों में.
तो यार!
मैंने,
सबसे पहले एक बच्चे को पकडा और
धर दिया उसकी नहीं हथेली पर
दो-चार लेमनचूस
मेरे बचपन वाले,
बच्चा तो खुश हों गया
(जैसे मैं होता था बचपन में)
पर उसका बाप
बाप रे बाप!
झपटकर छीना और
फ़ेंक दिया वो लेमनचूस,
और मुझे..s--
मुझे दीं जीं-भर के गालियाँ
मैं उसके बच्चे को बिगाड़ जो रहा था.
खैर,
मैंने हिम्मत नहीं हारी
और
जा पकडा एक ख्यातिप्राप्त समाज-सुधारक,
बुद्धिजीवी,
महामहोपाध्याय को
और झट धर दिया एक लेमनचूस
उनकी चौड़ी-चकली हथेली पर.
मुफ़्त का माल,
उन्होने गप-से मुह में डाला
किन्तु ये क्या,
उनका चेहरा क्यूं विकृत हो रहा है?
“आ..s-- क..s-- थू…s--”
बेचारा लेमनचूस मुँह से निकल
जा पड़ा कुदेदान में.
“क्यूं बे…s--
कुनैन की गोली दीं थी क्या?”
नहीं भाई,
ये तो सत्य की लेमनचूस है
जो बचपन में मुझे
आपने ही दी थी.
बस,
फिर क्या था
थप्पड़, लात, जूते
और जाने क्या-क्या…
खैर,
चेतनाहीन होने से पहले मैंने सुना…
“अबे गधे,
ये लेमनचूस तुझे दी थी
दूसरों को दिखाने के लिए
और तुने इसे मुझे ही खिला दिया…!!
दीदे फाड़कर देख ले
तेरी इस ‘सत्य की लेमनचूस’ की जगह
थूकदान में है
समझा…s--”
यार सच!
तुझे इतनी बढिया कहानी सुनाई
फिर भी तू रो रहा है!!
बस, यार बस
चुप हो जा
वरना
बह निकलेगी मेरी आंखों से भी
युगों की संचित
यह घनीभूत पीड़ा;
और
तब यही दुनिया
जो मेरी अवसरवादिताजनित नपुंसकता को
‘बुद्धिमत्ता’, ‘समायोजनशीलता’
आदि-आदि नामों से नवाजती है,
मेरी आत्मा के आंसुओं को
नामर्दी का खिताब दे देगी.
यार सच!
मुझे माफ़ करना,
मैं तेरे लिए रो भी नहीं सकता;
‘मर्द’ हूँ न
इसलिये.
..

* This poem has been published in ‘Amar Ujala’ (January 30, 1998; page 04).
**Anrit=Asatyaa

शुक्रवार, 8 जून 2007

SNOW

“The Snow”:
Blood dripping from a broken heart…over the snow…in a world which is as cold and indifferent as snow…!
A must for all those who have ever loved anyone…
KA, a true poet, an unfortunate lover, a loner, and in the end, a looser…spent the three most valuable days of his life doing things for others, though inadvertently, working as a negotiator, as a lover who longs for the company of Ipek simply for happiness, as a person who was made to witness some untoward incidents and even to become a part of them. Actually, KA had died in Kars itself when Ipek fails to show up at the train to Germany. Only, it was a matter of time that he was shot up after four years.
Ipek is a woman who can never love anyone but herself.
"Snow" is a personal tragedy, brilliantly interwoven in background of socio-political-religious turmoil. A man gets nothing from his love but sorrow...!
I would have missed a great experience if haven’t read this novel…thanks to Prof. Roy who provided this book to me.
If you want to discuss literature with me, visit this link:

बुधवार, 6 जून 2007

तुम..(4)

तुम,
स्नेहिल छाया-सी
ईश्वर की,
सर्वत्र व्याप्त;
मुझे परिवेषि्ठत करती हुई...
कैसे दूर जाॐ...?

तुम...(3)

तुम,
कोई मीठी-सी याद
बचपन की,
चाहकर भी भूल नहीं सकता...!!

तुम...(2)

तुम,
यूं धंस गए
मेरे वजूद में
ज्यूँ मंत्रबिद्ध कील;
आख़िर क्यूं...?

शनिवार, 2 जून 2007

तुम क्या गए

तुम क्या गए,
एक युग चला गया
मुझे छोड़...

तन्हा-से रह गए:
ये मन,
ये राह,
पैरों से लिपटे
ये मोड़...!!!

शुक्रवार, 1 जून 2007

नदी का जन्म कैसे होता है...!

लो
फिर झुका प्यासी धरती पर
तेरे नेह का बादल...
और,
नम हो आया कोई शुष्क-सा कोना
मेरे अंतस का;

उमड़ी इन आंखों में फिर एक नदी...
पर,
प्यासी ही रह गयी ये धरती
एक बार फिर से...!!!

तुम पूछ रही थी:
'नदी कैसे बनती है...?'

अधूरा-सा प्रश्न

मैं,
एक वृत्त खींचना चाहता हूँ.....
जिसकी परिधि मेरी बाहें हों,
क्या तुम
इस वृत्त का केंद्र बनोगी.....?

तुम...!! (1)

जिस पल तुम सामने होती हो
जीवन होता है,
उसके पहले,
उसके बाद,
महज एक शून्य
सांय-सांय सन्नाटा...
अपनी-ही आवाज उन सारे पलों को छूकर आ रही है
जिनमें तुम नहीं थी...!

तुम्हारा होने का सुख,
तुम्हारे न होने की पीड़ा,
अमूल्य निधियाँ हैं ये सब
हृदय के संग्रहालय की...!!!

ईश्वर...!!!

ऊपर जो बैठा है
खुद में ही ऐंठा है
कैसा वह ईश्वर है...!

हमको मिलाता है,
सपने दिखाता है,
ख्वाहिश जगाता है,
फिर हमसे कहता है:
'यह जगत तो मिथ्या है'
क्यूं है वो क्रूर इतना...??

क्या नहीं कोई अरमा उसे,
क्या नहीं पता उसे,
दर्द कितना होता है
दिल जब कोई रोता है;

क्या उसे दिल नहीं...???
काश
न मिले कभी
उस ईश्वर को
उसका प्यार...!

गुरुवार, 31 मई 2007

मैं

गिरता हूँ , चलता हूँ
खुद को ही छलता हूँ ;
मंज़िल की तलाश में
राहें बदलता हूँ ।

झूठे सब रिश्ते हैं,
नातों में दीमक हैं,
जानबूझ कर क्यूं मैं
मकड़ जाल फ़सता हूँ...!
खुद को ही छलता हूँ ।

तन्हा-सा ये मन है
क्लांत-क्लांत ये तन है,
फिर भी मैं जाने क्यूं
सपने-से बुनता हूँ !!
खुद को ही छलता हूँ ।

अपना न साथी कोई
कोई आस बाक़ी नहीं
फिर भी मैं व्याकुल हो
किसकी राह तकता हूँ !!!
खुद को ही छलता हूँ ।

किरच-किरच टूटा मन
रेत-रेत ज्यूँ जीवन
नेह-बूँद हेतु क्यूं
मरुथल बिचरता हूँ!!!
खुद को ही छलता हूँ....!

याद

पतंग-सा चढ़ता गया
चांद आसमान पर,
ज्यूँ-ज्यूँ तनती रही ख्यालों की डोर;
चलती रही बयार रात भर
तुम्हारी गंध की, और
खड़कते रहे पात यादों के वन में;

अधूरी-सी बात
जो कह न सका ये कम्बख्त दिल
ओठों पर लरजती रही...

रह-रह कर चुभती रही
यही एक फाँस मन में:
'क्यूं होता है ऐसा,
कोई धंस जाता है
कहीं बहुत गहरे तक
जीवन में...?'

तुमसे दूर जा नहीं सकता

मैं तुमसे दूर कहाँ जाऊंगा दोस्तों...
ये ठण्डी हवाएं, ये मीठी छाँव, ये गुलमोहर
कहाँ पाऊंगा ...!
मैं तुमसे दूर कहाँ जाऊंगा दोस्तों...?

मुमकिन है ना याद रहे चेहरा तुम्हारा,
मुमकिन है भुला दो तुम नाम हमारा,
पर ये आवाज की लर्जिश, अनकहा-सा रिश्ता,
भूल ना पाऊंगा...!!
मैं तुमसे दूर कहाँ जाऊंगा...?

पैरों में लिपटी यादें ज्यूँ तेरी याद
लिपटी रहे मेरी रूह से,
वो नरमो-नाजुक से अहसास, वो लज्जत कहाँ से
लाऊंगा...!!!
मैं तुमसे दूर कहाँ जाऊंगा...?

ये हवा, ये छाँव, ये आवाज, ये अहसास कहाँ से
लाऊंगा...??
क्या कभी दूर जा भी पाऊंगा...???

About love...!!!


Love is an illusion worth living in...!!!

the dream begins..!!!


Hi all,
I'm Durgesh, the Dreamer. This blog is my attempt to share my dreams and visions and understand the meaning of all those things that are meant to be un-understandable...te meaning of life and death, what is the exact nature of truth and can we really perceive it living in an unreal world., what is friendship and what is love...to name a few.
Join me in my eternal quest...
All are welcome.
Durgesh