मंगलवार, 26 जून 2007

रे मन...!

झुकना नहीं रे मन !

चाहे कड़ी धूप लगे,
क़दमों तले छाले पड़ें,
राह में थक कर
रुकना नहीं रे मन...!!

दूर तेरी मंज़िल है,
चलना तेरा हासिल है,
राह के छलावों में
फ़ंसना नहीं रे मन...!!

अंतस के ताप को,
दिए में ढाल ले,
अपने मनः-प्राण को
बाती-सा बाल ले,
आँधियों मे भी जल तू,
बुझना नहीं रे मन...!!!



To be completed later...

1 टिप्पणी:

उन्मुक्त ने कहा…

झुकना नहीं रे मन। जब तक इसका स्वपन नहीं देखेंगे तब तक उसे रूप कैसे देंगे।
अच्छी कविता है।