रे सच!
फिर हार गया न…?
तू तो बना ही है
हारने के लिए.
अरे, अरे
तू तो रोने लगा!!
अच्छा..s--s--
बात दिल को लग गयी इसलिये;
अरे यार!
सदिया गुजर गईँ
पर तू रहा बेवकूफ का बेवकूफ,
अबे गधे
इतने दिन से लात-जूते खा रहा है
तब तो नहीं रोया
और आज,
आज तुझे मेरी छोटी-सी बात लग गयी!!
अच्छा सच!
सच बता,
क्या तू घुमक्कड़ था
जो चौदह बरस घूमता रहा वां में
वानर-भालुओं के साथ,
श्री-विहीन…?
कैसा लगा था तुझे
अनृत** पर विजय हेतु
शक्ति की चिरौरी करते…?
मगर,
तब तो तेरी आंखों से
चौदह बरस का निस्सहाय परिताप
नहीं निकला था
जल बनकर;
फिर आज क्यूं…?
यार सच!
देख मेरी आंखों में
और
सच बोल,
क्रॉस पर लटके-लटके
तुने सही होगी असीम पीड़ा
किन्तु
तब तो तू नहीं रोया;
फिर आज क्यूं…?
अच्छा चल
यही बता दे
विषपान करते समय
क्या छा गया था तेरी आंखों का आगे भी
मृत्यु का अँधेरा…?
किन्तु
तब तो तू हँसता रहा
फिर आज क्यूं रो रहा है…?
चल तुझे एक कहानी सुनाता हूँ…
ढ़ेर लग गया था मेरे पास
सिद्धांतो-आदर्शों और
सत्याप्रियता व न्यायप्रियता की लेमनचूसों का
जो बचपन से मुझे मिलती रहीं
गुरुजनों और परिजनों से
जब भी मैं
अन्याय के द्वारा लातियाये जाने पर
रोने लगा, तब.
मैंने सोचा,
शास्त्र कहते हैं…
अपरिग्रह
तो लाओ
आज बाँट दूँ
दो-चार लेमनचूस बच्चों और बूढों में.
तो यार!
मैंने,
सबसे पहले एक बच्चे को पकडा और
धर दिया उसकी नहीं हथेली पर
दो-चार लेमनचूस
मेरे बचपन वाले,
बच्चा तो खुश हों गया
(जैसे मैं होता था बचपन में)
पर उसका बाप
बाप रे बाप!
झपटकर छीना और
फ़ेंक दिया वो लेमनचूस,
और मुझे..s--
मुझे दीं जीं-भर के गालियाँ
मैं उसके बच्चे को बिगाड़ जो रहा था.
खैर,
मैंने हिम्मत नहीं हारी
और
जा पकडा एक ख्यातिप्राप्त समाज-सुधारक,
बुद्धिजीवी,
महामहोपाध्याय को
और झट धर दिया एक लेमनचूस
उनकी चौड़ी-चकली हथेली पर.
मुफ़्त का माल,
उन्होने गप-से मुह में डाला
किन्तु ये क्या,
उनका चेहरा क्यूं विकृत हो रहा है?
“आ..s-- क..s-- थू…s--”
बेचारा लेमनचूस मुँह से निकल
जा पड़ा कुदेदान में.
“क्यूं बे…s--
कुनैन की गोली दीं थी क्या?”
नहीं भाई,
ये तो सत्य की लेमनचूस है
जो बचपन में मुझे
आपने ही दी थी.
बस,
फिर क्या था
थप्पड़, लात, जूते
और जाने क्या-क्या…
खैर,
चेतनाहीन होने से पहले मैंने सुना…
“अबे गधे,
ये लेमनचूस तुझे दी थी
दूसरों को दिखाने के लिए
और तुने इसे मुझे ही खिला दिया…!!
दीदे फाड़कर देख ले
तेरी इस ‘सत्य की लेमनचूस’ की जगह
थूकदान में है
समझा…s--”
यार सच!
तुझे इतनी बढिया कहानी सुनाई
फिर भी तू रो रहा है!!
बस, यार बस
चुप हो जा
वरना
बह निकलेगी मेरी आंखों से भी
युगों की संचित
यह घनीभूत पीड़ा;
और
तब यही दुनिया
जो मेरी अवसरवादिताजनित नपुंसकता को
‘बुद्धिमत्ता’, ‘समायोजनशीलता’
आदि-आदि नामों से नवाजती है,
मेरी आत्मा के आंसुओं को
नामर्दी का खिताब दे देगी.
यार सच!
मुझे माफ़ करना,
मैं तेरे लिए रो भी नहीं सकता;
‘मर्द’ हूँ न
इसलिये...
* This poem has been published in ‘Amar Ujala’ (January 30, 1998; page 04).
**Anrit=Asatyaa
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