ऊपर जो बैठा है
खुद में ही ऐंठा है
कैसा वह ईश्वर है...!
हमको मिलाता है,
सपने दिखाता है,
ख्वाहिश जगाता है,
फिर हमसे कहता है:
'यह जगत तो मिथ्या है'
क्यूं है वो क्रूर इतना...??
क्या नहीं कोई अरमा उसे,
क्या नहीं पता उसे,
दर्द कितना होता है
दिल जब कोई रोता है;
क्या उसे दिल नहीं...???
काश
न मिले कभी
उस ईश्वर को
उसका प्यार...!
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