गुरुवार, 31 मई 2007

मैं

गिरता हूँ , चलता हूँ
खुद को ही छलता हूँ ;
मंज़िल की तलाश में
राहें बदलता हूँ ।

झूठे सब रिश्ते हैं,
नातों में दीमक हैं,
जानबूझ कर क्यूं मैं
मकड़ जाल फ़सता हूँ...!
खुद को ही छलता हूँ ।

तन्हा-सा ये मन है
क्लांत-क्लांत ये तन है,
फिर भी मैं जाने क्यूं
सपने-से बुनता हूँ !!
खुद को ही छलता हूँ ।

अपना न साथी कोई
कोई आस बाक़ी नहीं
फिर भी मैं व्याकुल हो
किसकी राह तकता हूँ !!!
खुद को ही छलता हूँ ।

किरच-किरच टूटा मन
रेत-रेत ज्यूँ जीवन
नेह-बूँद हेतु क्यूं
मरुथल बिचरता हूँ!!!
खुद को ही छलता हूँ....!

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