शनिवार, 27 दिसंबर 2008

Watching Ghajini...!

अभी-अभी गजनी देख कर आ रहा हूँ। फ़िल्म की बात तो बाद में पर पहले कुछ पूर्व-पीठिका हो जाए। सोचा था कि सिनेमैक्स में देखूंगा। वहां २० मिनट तक लाइन में लगने के बाद पता चला कि सर्वर काम नहीं कर रहा है सो आज के कोई भी टिकट नहीं मिलेंगे...मुझे आश्चर्य इस बात से हुआ कि उसने ये बात बताने में इतनी देर क्यूं लगाई जबकि उसके पास मिक्रो फोन था जिस पर वह ये सबको एक साथ बता सकता था...पर शायद वह प्रत्येक दर्शक को व्यक्तिगत रूप से बताना चाहता था...a part of customer-oriented policy...! वहां से भाग कर फन में पहुँचा तो वहां हाउसफुल...! किंतु जो इतनी जल्दी मैदान छोड़ दे तो वो मैं कहाँ...अन्तिम प्रयास के रूप में अनुराधा पहुँचा तो वहां इतनी लम्बी लाइन लगी थी जितनी कभी समाजवादी देशों में गरीब लोग राशन के लिए लगाते थे...! जिंदगी का दूसरा झटका: मैंने देखा कि औरतें टिकेट ब्लैक कर रही हैं...! गुवाहाटी में आए मुझे अभी कुछ ही दिन हुए हैं पर यहाँ पर 'नारी-सशक्तिकरण' देख कर मेरी आँखे खुल गयी...सो मैं भी ब्लैक में टिकेट खरीद कर (आमिर भाई सुन रहे हैं न...!) और १०० मीटर लम्बी लाइन में लग कर हाल के अन्दर पहुँचा।
अब उत्सुकता हो रही होगी न ये जानने के लिए कि अन्दर क्या नजारा था...! बस ऐसा लग रहा था कि पूरा गुवाहाटी सिनेमा हाल में समा गया है...फ़िल्म शुरू हुई...अपने शानदार इंट्री की...और जब पहली बार आईने के सामने आपने अपनी टी-शर्ट उतारी तो जैसे किसी ने दर्शकों को adrenaline का इंजेक्शन लगा दिया हो...पूरा हाल तारीफ़ के शोर से गूँज उठा...मैं भी मंत्रमुग्ध-सा देखता रह गया उस आमिर खान को जिसका फैन मैं sarfarosh dekh kar hua tha (Now I'll use English as my pc has stopped transliterating to Hindi)....
You know, people often commented that you were so thin and it seemed unbelievable to them to assume you as ACP in Sarfarosh. This issue was a bone of contention between them and me. But now, you looked unbelievable...My God...what a body...actually, speaking honestly, I was wondering how much you would have suffered to get this look...Really, I'm short of words for praise.
Now, come to the acting...It was again very natural...I loved watching you speaking through your eyes and face rather than tounge. Some scenes were really superb, like when you're watching Kalpana's face when she was offering you money that she had arranged after selling her car. Aamir! I could read waht was in your mind (as the character) at that time...ohh my God, she is giving me money which is so much for her...really touchy scene and a superb acting by both of you...You were again superb when you forgot why you've been there during the last fight...I wondered if you are really baffled where have you come...superb expression Aamir!
And in the last scene when Jiya gifted you the 'very especial thing', the first footprints of both of you, you really acted unbeleivably...I could feel what you were trying to purport...Also the cinematography of that particular scene was superb...the director also deserves cuddos for selecting that background and colour. Aamir, you gave execellant expression as a person who is suffering from such a peculiar problem as Short term memory loss and is also buring in fire of revenge...really, you deserve an Oscar for it...You deserved it for Taare Jameen Par also but there that little boy was not a bit behind you...but in Ghajini, you stole the show from all...Asin is exceptionally talented but your role was so challenging.Yesterday, I was watching your talk at AajTak but till then, unfortunately, I hadn't saw the movie so I didn't call.You know Aamir, why I'm a fan of you...Both of us are perfectionist...!

रविवार, 14 दिसंबर 2008

नदी और द्वीप...

नदी में उभरे द्वीप-सा मैं,

निश्छल देख रहा चारों ओर उमड़ती जीवन की नदिया को,

मुझे छूकर गुजर रहा जीवन का जल

पर कितना असम्पृक्त-सा मैं

हर पल,

शायद मैं समझने लगा हूँ कि

जल के बीच शुष्क रहना मेरी नियति है...

या फिर इसी जल से धीरे-धीरे

कट-कट कर अपना अस्तित्व खोना

मेरी मजबूरी है...

जीवन से घिरा,

पर जीवन से दूर

ये कौन-सा जीवन है...!

पहेली...

क्रास वर्ड पहेली-सी बिखरी जिंदगी,
टुकड़े चुनने और
पहेली पूरी करने में गुजरती जिंदगी;
तमाम रेशे उधड चले,
सारे साथी बिछड़ चले,
सारे सपने बिखर गए,
पर लगा हुआ हूँ कि
कभी तो इस पहेली का हल पाऊंगा,
चाहे कितनी भी कोशिश कर ले हराने की
पर देखना जिंदगी, एक दिन
जरूर जीत जाऊँगा मैं...!

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

हम क्यूं छले जाते हैं...!

सारे रिश्ते झूठे हैं,
व्यर्थ सब नाते हैं,
जानते हुए भी क्यूं
हम
बार-बार छले जाते हैं...?

रविवार, 7 दिसंबर 2008

आना-जाना तुम्हारा...!


तुम्हें आना था,

तुम आ गए...

तुम्हें जाना था,

तुम चले गए...

मैं न ये पूछ सका कि तुम आए क्यूं थे,

न तुम बता सके कि जाना क्यूं है...!

सवाल...!

जिंदगी में आने वाले
चाहे कितने वादे करें,
पर क्या
वो शामिल होते हैं जिंदगी में...!
जिंदगी से जाने वाले
चाहे कितनी कोशिश करें,
पर क्या
वो निकल पाते हैं जिंदगी से...?
पूछूँगा ये सवाल किसी दिन
जब मिलूँगा जिंदगी से...!!

रविवार, 30 नवंबर 2008

मुंबई में आतंक

पूरी दुनिया साँस रोके देखती रही किस तरह हमारे जाबांज जवान आतंकवादियों का सफाया कर रहे थे मुंबई में। कितने लोग हताहत हुए, कितना नुकसान हुआ यह सब तो बाद की बात है...मुद्दा ये है कि हम इतने बेखबर कैसे हो जाते हैं कि कोई भी हमारे घर में घुसा चला आता है और हम चैन से सोये रहते हैं ...हमें जगाने के लिए दो-चार धमाके करने ही पड़ते हैं...!

मेरा अपना अनुभव है कि हमारी पुलिस फोर्स तो कत्तई इस तरह के हमले से निपटने लायक नहीं है। उनके पास न तो ऐसी ट्रेनिंग है और न ऐसे हथियार। और हमारी पुलिस फोर्स का एक बड़ा हिस्सा तो हमारे तथाकथित मान्यवरों की सुरक्षा में लगा रहता है जो अपने ही लोगों से असुरक्षित महसूस करते हैं...! पुलिस ट्रेनिंग को तरह से आधुनिक बनाने की जरूरत है। हमारे नेता ये कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हम लोगों की एकजुटता को सलाम करते हैं। ठीक है कि लोग एकजुट हैं, पर आप क्या कर रहे हैं....?

मैं जानना चाहता हूँ हमारे नेताओं से कि वो दिन कब आएगा जब उन्हें प्रत्येक भारतवासी के जान अपनी जान जैसी ही कीमती लगेगी...? कब वो खुल कर कह सकेंगे कि अब अगर एक भी हिन्दुस्तानी का खून बहा तो हम आतंकियों और उन्हें शह देने वालों की ईंट से ईंट बजा देंगे...? कब इस देश में एक आम आदमी और एक राजनेता की जिंदगी एक समान कीमती समझी जायेगी...?

रविवार, 23 नवंबर 2008

होना अकेला भीड़ में...

आज-कल वो गीत बहुत याद आ रहा है..."मैं जहाँ रहूँ...तेरी याद साथ है"। उसमें ये पंक्तियाँ हैं न..."कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है, पर छुप के इस दिल में तन्हाई रहती है..."। इस फ़िल्म 'नमस्ते लन्दन' से मेरा रिश्ता बहुत-ही गहरा है...जिंदगी में ऐसे बहत से दौर आते हैं जिनकी परछाइयाँ आप फिल्मो, गीतों, और कहानियों में देखते हैं। इसका कारण (जो मुझे मेरे भतीजे की एक बात से मिला) यह है कि ये सभी हमारी जिंदगी से प्रेरित होकर ही तो बनती हैं...बस एक अन्तर ये है कि फिल्मों के अंत अक्सर सुखद होते हैं पर असल जिंदगी के बहुत-ही कम...!
आज मैं भी गुवाहाटी में नितांत अकेला महसूस कर रहा हूँ...अकेला तो मैं हमेशा से ही था, और मुझे ये जीवन काफ़ी कुछ पसंद भी था, किंतु आज तो और भी अकेला हो गया हूँ...
किसी के साथ होने का ये अर्थ नहीं कि वह आपके साथ-ही है...मैं एक भीड़ में हो सकता हूँ या फिर दोस्तों के बीच पर कुछ ऐसा हो सकता है कि मैं उस समय उन सभी से कहीं दूर, बहुत दूर खोया हुआ हूँ। मुझे लगता है कि भौतिक सामीप्य से मानसिक और भावनात्मक सामीप्य कहीं अधिक अर्थ रखता है...हाँ, यह बात भी सभी पर लागू नहीं होती।
ऐसा क्यूं होता है हम अक्सर जिसके साथ होते हैं, उसके साथ नहीं होते...वरना क्या राजू गाइड को रोजी मिलती...? ऐसा क्यूं होता है कि हमें जिसके साथ होना चाहिए, हम उसके साथ नहीं हो पाते...? ये ऊपर वाला भी बहुत-ही बड़ा शरारती है...हम सबसे खेलता रहता है...बिना ये परवाह किए कि हम पर क्या गुजर रही है...!

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

Road to El Dorado...!

I'm searching...the road to El Dorado...Can anyone tell me how to reach there...?El Dorado will give the meaning, substance to my life...may it is within me, like it is within all of us...Who knows...I'm searching...!

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

मन की बातें...!

काश हम पढ़ सकते एक-दूसरे का मन

कागज़ पर लिखी इबारत की तरह,

शायद तुम मुझे गले से लगा लेना चाहते तब,

शायद मैं तुम्हे देखना भी न चाहता...

कितना अच्छा है न कि हमारा मन कागज़ नहीं है...!

बुधवार, 5 नवंबर 2008

ये कहाँ जा रहे हैं हम...!

कल का दिन अजीब रहा. सुबह-सुबह अखबार (टेलीग्राफ) देखा तो ख़बर थी की नाल्गाओ में तीन हिन्दी-भाषी , बिहारी लोगों को मार दिया गया। मुझे तुंरत आभाष हो गया की यह परी देश फिर से झुलसने जा रहा है अलगाववाद की आग में…मैंने लोगों से इस बारे में चर्चा की तो उन्होंने मुझे दिलासा दिया की ये बहुत दूर हुई घटना है और ऐसा कुछ गुवाहाटी या शहर में नहीं होने वाला. पर बदकिस्मती से वो सभी ग़लत थे…शाम जब मैं बाजार जा रहा था तो हमारे यहाँ काम करने वाले कुछ मजदूर मिले जो बाजार से वापस आ रहे थे. उन्होंने हमने बताया की कुछ स्थानीय लड़कों ने उन्हें मारा-पीटा और कुछ पैसे भी छीन लिए. थोडी देर बाद ख़बर मिली की वहां से कुछ दूर मुस्लिमों को, जो स्थानीय लोगों के अनुसार बंगलादेशी हैं, मार-पीट कर भगा दिया गया है. हमारे यहाँ के जिन मजदूरों के साथ ये हुआ वो भी मुस्लिम हैं.
ये कहाँ जा रहे हैं हम…! अर्थशास्त्र में गुणक का सिद्धांता हमें बताता है कि किसी भी आर्थिक क्रिया पर जो प्रतिक्रिया होती है वह उस क्रिया की कई गुना होती है. मुझे लगता है कि गुणक का सिद्धांता हमारे जीवन के हर पहलू पर लागू होता है. हमारा एक कार्य समाज में जाने कितनी-ही प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है. जन्म लेने वाली प्रतिक्रिया का स्वभाव मूल क्रिया पर निर्भर करता है, यद्यपि इसके अपवाद भी हो सकते हैं. एक अच्छा काम और अच्छे कामों में तब्दील हो सकता है और बम-ब्लास्ट जैसा एक घृणित काम आगे चलकर मुस्लिमों पर जुल्म के रूप में भी सामने आ सकता है. क्या ये यहीं रुक जायेगा? कभी नहीं, क्यूंकि फिर से प्रतिक्रिया होगी और कुछ नया घटेगा जो बुरा ही होगा.
मेरी परीकथा में सब गड़बड़ होता जा रहा है…राक्षस ने तबाही मचनी शुरू कर दी है, लोग उससे डरे हुए हैं…कुछ लोग उसका विरोध भी करना चाहते हैं पर वो अकेले पड़ते जा रहे हैं, बेहद अकेले. राक्षस अट्टहास करता एक कोने से दूसरे कोने में दौड़ रहा है और जाने कितने बेगुनाह लोग उसके पैरों तले कुचले जा रहे हैं. दर्द की कराह धीरे-धीरे परी-देश को अपने चंगुल में लेती जा रही है. राजकुमार हैरान है…उसे लगता है कि अब हमारी परियों और छोटे-छोटे बच्चों का क्या होगा? बचपन में जब परिकथा में राक्षस आता था तो मैं चौक पड़ता था…रात में परियों के सपने के बीच वो घुस आता था और मैं चिहुंक कर उठ बैठता था। तभी माँ सर पर हाथ फेर कहती थी ‘बेटा सो जा, वो तो बस एक सपना था’। आज राक्षस सपने में पल-पल और भी अधिक डरावना होता जा रहा है पर ये बुरा सपना ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा; काश, कोई मुझे जगा दे और कहे ‘ये बस एक बुरा सपना था’…!
अगर ऐसे ही चलता रहा तो यहाँ कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा...शायद आसाम अपने पुराने दिनों की तरफ़ लौट रहा है जब यहाँ बारूद का धुआं था, चीखें थीं...नहीं थी तो बस शान्ति...मैंने कुछ 'बुद्धिजीवियों' से कहा कि वे कम से कम लोगों को यह तो समझा सकते हैं कि इस तरह से किसी एक सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ कुछ करना भी तो उचित नहीं है तो उनकी प्रतिक्रिया निराशाजनक थी। मैं उनका डर समझ सकता हूँ पर क्या करूँ...ये मन है कि मुझसे कह रहा हैकि तुम आज तो तमाशा देख रहे हो पर कल तुम ख़ुद भी तमाशा बन सकते हो...मुझे याद आ रही हैं अपने कविता 'सच और मैं' की आख़िरी पंक्तियाँ जो मेरी वर्तमान मनोदशा को बयान करती हैं
"यार सच!
मुझे माफ़ करना
मैं तेरे साथ रो भी नहीं सकता,
मर्द हूँ न इसलिए...!!!"

सोमवार, 3 नवंबर 2008

सपने बुरे भी हो सकते हैं...!

परीकथाएँ मुझे बचपन से ही बहुत पसंद रही हैं। मेरी माँ कहानी सुनाती जाती और मैं सपनों में खो जाता...खूबसूरत, नाजुक सपने...जिनमे सब कुछ सुंदर ही होता था। अचानक जब माँ कहानी में एक राक्षस ला देती तो मैं चौक पड़ता...इतनी खूबसूरत दुनिया में इतने बुरे लोग कैसे हो सकते हैं...? इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ते जाने कितने वर्ष गुजर गए...इन सारे गुजरे वर्षों में बहुत कुछ बदला पर दो दो चीजें आज भी नहीं बदलीं: मुझे परीकथाएँ आज भी उतना ही लुभाती हैं और दूसरी ये कि आज भी मुझे इस प्रश्न का उत्तर न मिल सका कि इतनी खूबसूरत दुनिया में इतने बुरे लोग कैसे हो सकते हैं...!

२३ अक्टूबर, २००८ को जब मैंने गुवाहाटी में सीनियर रिसर्च फेलो के पद पर ज्वाइन किया तो लगा कि यह एक नयी परिकथा की शुरुआत है...सुंदर जगह, सुंदर लोग, खूबसूरत नजारे बाहें फैलाए मेरे स्वागत में खड़े थे...सुबह की सैर में पहाडियों पर छाई धुंध मुस्करा कर मुझे शुभ-प्रभात कहती तो डूबता सूरज आसमान में तमाम रंगों की बाल्टी उड़ेल मानो चुनौती देता कि है इतने रंग तुम्हारे कैनवास में क्या...! मैं सोच रहा था भगवान् ने कितनी खूबसूरती बिखेरी है यहाँ पर। मुझे हर किसी ने इलाहाबाद की सुरक्षा छोड़ आसाम जाने के ख़िलाफ़ सलाह दी...जो लोग अपनी लड़कियां मुझसे ब्याहने के लिए जुगाड़ खोज रहे थे उन्होंने मेरे आसाम जाने के निर्णय का पता चलने पर अपने इरादे बदल दिया और कोई न कोई बहाना बना कर मुझसे कन्नी काट गए...! गुवाहाटी में कुछ दिन बिता कर मुझे लगा कि मेरा निर्णय सही था...आख़िर यह भी मेरे देश का एक राज्य है और हम यहाँ नहीं आयेंगे तो फिर कौन आएगा...? मेरा मन युवा उत्साह से भरा हुआ था पूर्वोत्तर राज्यों के विकास में अपना योगदान देने का मौका मिलने पर। मुझे हमेशा लगता रहा है कि मेरे देश ने मुझे बहुत कुछ दिया है और अब जब मुझे अवसर मिला है तो मुझे भी उसे उसका ऋण वापस करना चाहिए। भले-ही आर्थिक रूप से यह अवसर मेरी उम्मीद के मुताबिक नहीं था पर मुझे एक अच्छा मंच मिल रहा था अपने देश के एक उपेक्क्षित भाग के लिए कुछ करने का। मैं अपने निर्णय पर बहुत ही प्रसन्न था।

२२ अक्टूबर, २००८ की शाम मैं सर्वेश्वर के साथ पहली बार गनेशगुड़ी बाजार गया। यह जगह जैसे जीवन से सरोबार थी। हर तरफ़ भीड़-ही-भीड़। खूबसूरत चेहरे हर तरफ लहरा रहे थे...हम पैदल चलते हुए काफी घूमे...दिसपुर सेक्रेतेरिअत और न जाने क्या-क्या। मैं सोच रहा था कि ये मेरा नया सपना है एक परिकथा का। जाने कब का क्या लिखा था जो मैं यहाँ आया वरना कभी सोचा नहीं था कि एक दिन मैं यहाँ जॉब करने आऊंगा।

२३ अक्टूबर, २००८ दिन के ११:३० के आस-पास अचानक मेरा फ़ोन घनघना उठा... दूसरी तरफ़ मेरा भतीजा था। उसने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ हूँ...मेरे ये बताने पर कि मैं अपने ऑफिस में हूँ उसने चैन की साँस ली। मैं अचरज में था कि माजरा क्या है...उसने मुझे बताया कि गनेशगुड़ी, पानबाजार सहित कई जगहों पर बम-ब्लास्ट हुआ है। मैं स्तब्ध रहा गया। मेरी नजरों के सामने पिछली शाम का दृश्य घूम गया...वो खूबसूरत चेहरे...वो जीवन से सरोबार भीड़...वो सजे-सजाये बाजार...केले के खंभों पर बांस की खपच्चियाँ खोंस कर उस पर रखे दीप। मैं जैसे नींद से जागा...परिकथा में फिर एक राक्षस आ गया था...भयानक राक्षस। मैं जानता था कि जो कुछ भी मैंने कल शाम देखा था उसमें से बहुत कुछ अब कभी नहीं देख पाऊंगा...! जाने कितने घरों में हमेशा के लिया अँधेरा हो गया है। मेरे मन में एक बार भी ये नहीं आया कि कल शाम मैं भी वहां था और ये मेरे साथ भी हो सकता था। मैं तो बस ये सोच रहा था कि कितना कुछ अब कभी नहीं होगा वहां...वो खूबसूरत चेहरे जो मुझे कल लुभा रहे थे पता नहीं आज हैं भी या नहीं; उनमें से जाने कितने अब रहे ही नहीं और जाने कितने सदा के लिए बदसूरत हो गए...! एक अजीब-सी हूक उठा रही थे मेरे मन में। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर क्या बिगाडा था इन मासूम लोगों ने उस राक्षस का...? मेरे ऑफिस के सभी लोग सोच रहे थे कि मैं शायद डर गया हूँ यहाँ की हालत देख कर। पर मेरे मन में क्या चल रहा था ये वो क्या जाने...मुझे जो दर्द हो रहा था पता नहीं वो उसे महसूस कर भी पा रहे थे या नहीं। तब से आसाम सामान्य नहीं हो पाया है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। हर कोई ये बताना चाह रहा है कि अगर उसकी सरकार होती तो ये न होता। मैं एक बात नहीं समझ पाटा कि जब इन नेताओं पर हमला होता है तो ये चिल्लाते हैं कि देश की संप्रभुता पर हमला हो रहा है...और जब सैकडों की तादाद में आम आदमी मरते हैं तो इन्हें दर्द क्यूं नहीं होता...? आख़िर देश उसके नागरिकों से होता है या उसके मौकापरस्त राजनीतिज्ञों से...?

आज ०३ नवम्बर, २००८ हो गयी। आज भी आसाम सामान्य नहीं हो पाया है। अखबार बम-ब्लास्ट की तस्वीरों से भरे पड़े हैं। जिस गनेशगुड़ी और दिसपुर की सुन्दरता ने मुझे मोह लिया था, आज लोग वहां से नाक पर रूमाल रख कर गुजर रहे हैं...लाशों की बदबू अभी भी फिजाओं में है...

एक बात जो मुझे आसाम के लोगों का कायल बना गयी वो ये है कि ये एकजुट होकर इन धमाकों का विरोध कर रहे हैं...सैकडों की तादाद में लोगों ने रक्तदान किया...सड़कों पर रोज शान्ति-मार्च हो रहा है...लेखक, संगीतकार, अभिनेता और आम आदमी सभी शान्ति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं...नेताओं की साँस अटक गयी है जन-विरोध देख कर...! और इसमें हर सम्प्रदाय और वर्ग के लोग शामिल हैं...देश को तोड़ने की साजिस करने वालों! यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलेगी.

अंत में इतना ही कहूँगा आसाम के लोगों से कि इस जगह की तरह ही आपके मन भी सुंदर हैं...मुझे खुशी है कि मैं यहाँ आया। और हाँ, हम फिर-से सपना देखेंगे, तब तक जब तक ये भयानक राक्षस हार न मान ले...हमारा सुंदर सपना हमसे कोई नहीं छीन सकता...!

p.s.: You can read something more regarding the economics behind political reactions to terrorism on:


http://durgeshonomics.blogspot.com/2008/11/he-raam.html

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

दोस्त-दुश्मन...!

जब दोस्त दुश्मन हो गए,
हमने भी कर ली दोस्ती
दुश्मन के साथ...!

बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

रिश्ते...!

रद्दी अखबार में लपेट
घूर पर फेंका जाना जूते का:
कितना आसान है न
रिश्ते तोड़ना...???

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

मुमकिन है,
मैं भूल जाऊँ तुम्हें,
एक दिन,
पर क्या कभी समझ सकूँगा:
"क्यूं प्यार किया था मैंने
तुम्हे...?"

यादें..!

जब मैं होता हूँ तन्हा
(जैसा कि मैं अक्सर होता हूँ)

जाने कहाँ-से निकल पड़ती हैं
यादें...

जाने वाले क्यूं नहीं ले जाते
साथ ही सब यादें...!