रविवार, 14 दिसंबर 2008

नदी और द्वीप...

नदी में उभरे द्वीप-सा मैं,

निश्छल देख रहा चारों ओर उमड़ती जीवन की नदिया को,

मुझे छूकर गुजर रहा जीवन का जल

पर कितना असम्पृक्त-सा मैं

हर पल,

शायद मैं समझने लगा हूँ कि

जल के बीच शुष्क रहना मेरी नियति है...

या फिर इसी जल से धीरे-धीरे

कट-कट कर अपना अस्तित्व खोना

मेरी मजबूरी है...

जीवन से घिरा,

पर जीवन से दूर

ये कौन-सा जीवन है...!

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।