नदी में उभरे द्वीप-सा मैं,
निश्छल देख रहा चारों ओर उमड़ती जीवन की नदिया को,
मुझे छूकर गुजर रहा जीवन का जल
पर कितना असम्पृक्त-सा मैं
हर पल,
शायद मैं समझने लगा हूँ कि
जल के बीच शुष्क रहना मेरी नियति है...
या फिर इसी जल से धीरे-धीरे
कट-कट कर अपना अस्तित्व खोना
मेरी मजबूरी है...
जीवन से घिरा,
पर जीवन से दूर
ये कौन-सा जीवन है...!
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
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