परीकथाएँ मुझे बचपन से ही बहुत पसंद रही हैं। मेरी माँ कहानी सुनाती जाती और मैं सपनों में खो जाता...खूबसूरत, नाजुक सपने...जिनमे सब कुछ सुंदर ही होता था। अचानक जब माँ कहानी में एक राक्षस ला देती तो मैं चौक पड़ता...इतनी खूबसूरत दुनिया में इतने बुरे लोग कैसे हो सकते हैं...? इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ते जाने कितने वर्ष गुजर गए...इन सारे गुजरे वर्षों में बहुत कुछ बदला पर दो दो चीजें आज भी नहीं बदलीं: मुझे परीकथाएँ आज भी उतना ही लुभाती हैं और दूसरी ये कि आज भी मुझे इस प्रश्न का उत्तर न मिल सका कि इतनी खूबसूरत दुनिया में इतने बुरे लोग कैसे हो सकते हैं...!
२३ अक्टूबर, २००८ को जब मैंने गुवाहाटी में सीनियर रिसर्च फेलो के पद पर ज्वाइन किया तो लगा कि यह एक नयी परिकथा की शुरुआत है...सुंदर जगह, सुंदर लोग, खूबसूरत नजारे बाहें फैलाए मेरे स्वागत में खड़े थे...सुबह की सैर में पहाडियों पर छाई धुंध मुस्करा कर मुझे शुभ-प्रभात कहती तो डूबता सूरज आसमान में तमाम रंगों की बाल्टी उड़ेल मानो चुनौती देता कि है इतने रंग तुम्हारे कैनवास में क्या...! मैं सोच रहा था भगवान् ने कितनी खूबसूरती बिखेरी है यहाँ पर। मुझे हर किसी ने इलाहाबाद की सुरक्षा छोड़ आसाम जाने के ख़िलाफ़ सलाह दी...जो लोग अपनी लड़कियां मुझसे ब्याहने के लिए जुगाड़ खोज रहे थे उन्होंने मेरे आसाम जाने के निर्णय का पता चलने पर अपने इरादे बदल दिया और कोई न कोई बहाना बना कर मुझसे कन्नी काट गए...! गुवाहाटी में कुछ दिन बिता कर मुझे लगा कि मेरा निर्णय सही था...आख़िर यह भी मेरे देश का एक राज्य है और हम यहाँ नहीं आयेंगे तो फिर कौन आएगा...? मेरा मन युवा उत्साह से भरा हुआ था पूर्वोत्तर राज्यों के विकास में अपना योगदान देने का मौका मिलने पर। मुझे हमेशा लगता रहा है कि मेरे देश ने मुझे बहुत कुछ दिया है और अब जब मुझे अवसर मिला है तो मुझे भी उसे उसका ऋण वापस करना चाहिए। भले-ही आर्थिक रूप से यह अवसर मेरी उम्मीद के मुताबिक नहीं था पर मुझे एक अच्छा मंच मिल रहा था अपने देश के एक उपेक्क्षित भाग के लिए कुछ करने का। मैं अपने निर्णय पर बहुत ही प्रसन्न था।
२२ अक्टूबर, २००८ की शाम मैं सर्वेश्वर के साथ पहली बार गनेशगुड़ी बाजार गया। यह जगह जैसे जीवन से सरोबार थी। हर तरफ़ भीड़-ही-भीड़। खूबसूरत चेहरे हर तरफ लहरा रहे थे...हम पैदल चलते हुए काफी घूमे...दिसपुर सेक्रेतेरिअत और न जाने क्या-क्या। मैं सोच रहा था कि ये मेरा नया सपना है एक परिकथा का। जाने कब का क्या लिखा था जो मैं यहाँ आया वरना कभी सोचा नहीं था कि एक दिन मैं यहाँ जॉब करने आऊंगा।
२३ अक्टूबर, २००८ दिन के ११:३० के आस-पास अचानक मेरा फ़ोन घनघना उठा... दूसरी तरफ़ मेरा भतीजा था। उसने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ हूँ...मेरे ये बताने पर कि मैं अपने ऑफिस में हूँ उसने चैन की साँस ली। मैं अचरज में था कि माजरा क्या है...उसने मुझे बताया कि गनेशगुड़ी, पानबाजार सहित कई जगहों पर बम-ब्लास्ट हुआ है। मैं स्तब्ध रहा गया। मेरी नजरों के सामने पिछली शाम का दृश्य घूम गया...वो खूबसूरत चेहरे...वो जीवन से सरोबार भीड़...वो सजे-सजाये बाजार...केले के खंभों पर बांस की खपच्चियाँ खोंस कर उस पर रखे दीप। मैं जैसे नींद से जागा...परिकथा में फिर एक राक्षस आ गया था...भयानक राक्षस। मैं जानता था कि जो कुछ भी मैंने कल शाम देखा था उसमें से बहुत कुछ अब कभी नहीं देख पाऊंगा...! जाने कितने घरों में हमेशा के लिया अँधेरा हो गया है। मेरे मन में एक बार भी ये नहीं आया कि कल शाम मैं भी वहां था और ये मेरे साथ भी हो सकता था। मैं तो बस ये सोच रहा था कि कितना कुछ अब कभी नहीं होगा वहां...वो खूबसूरत चेहरे जो मुझे कल लुभा रहे थे पता नहीं आज हैं भी या नहीं; उनमें से जाने कितने अब रहे ही नहीं और जाने कितने सदा के लिए बदसूरत हो गए...! एक अजीब-सी हूक उठा रही थे मेरे मन में। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर क्या बिगाडा था इन मासूम लोगों ने उस राक्षस का...? मेरे ऑफिस के सभी लोग सोच रहे थे कि मैं शायद डर गया हूँ यहाँ की हालत देख कर। पर मेरे मन में क्या चल रहा था ये वो क्या जाने...मुझे जो दर्द हो रहा था पता नहीं वो उसे महसूस कर भी पा रहे थे या नहीं। तब से आसाम सामान्य नहीं हो पाया है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। हर कोई ये बताना चाह रहा है कि अगर उसकी सरकार होती तो ये न होता। मैं एक बात नहीं समझ पाटा कि जब इन नेताओं पर हमला होता है तो ये चिल्लाते हैं कि देश की संप्रभुता पर हमला हो रहा है...और जब सैकडों की तादाद में आम आदमी मरते हैं तो इन्हें दर्द क्यूं नहीं होता...? आख़िर देश उसके नागरिकों से होता है या उसके मौकापरस्त राजनीतिज्ञों से...?
आज ०३ नवम्बर, २००८ हो गयी। आज भी आसाम सामान्य नहीं हो पाया है। अखबार बम-ब्लास्ट की तस्वीरों से भरे पड़े हैं। जिस गनेशगुड़ी और दिसपुर की सुन्दरता ने मुझे मोह लिया था, आज लोग वहां से नाक पर रूमाल रख कर गुजर रहे हैं...लाशों की बदबू अभी भी फिजाओं में है...
एक बात जो मुझे आसाम के लोगों का कायल बना गयी वो ये है कि ये एकजुट होकर इन धमाकों का विरोध कर रहे हैं...सैकडों की तादाद में लोगों ने रक्तदान किया...सड़कों पर रोज शान्ति-मार्च हो रहा है...लेखक, संगीतकार, अभिनेता और आम आदमी सभी शान्ति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं...नेताओं की साँस अटक गयी है जन-विरोध देख कर...! और इसमें हर सम्प्रदाय और वर्ग के लोग शामिल हैं...देश को तोड़ने की साजिस करने वालों! यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलेगी.
अंत में इतना ही कहूँगा आसाम के लोगों से कि इस जगह की तरह ही आपके मन भी सुंदर हैं...मुझे खुशी है कि मैं यहाँ आया। और हाँ, हम फिर-से सपना देखेंगे, तब तक जब तक ये भयानक राक्षस हार न मान ले...हमारा सुंदर सपना हमसे कोई नहीं छीन सकता...!
p.s.: You can read something more regarding the economics behind political reactions to terrorism on:
4 टिप्पणियां:
Again you said,What was true.
It is my luck that I am probably the first person to read the same, what I was thinking that you were feeling after the disaster in your "Paridesh".
परिकथा के दानव को पहचानने और ख़त्म करने की पहल में आपका ब्लॉग सफल हो. शुभकामनाएं.
(किस विषय में SRF हैं आप?
ब्लोगिंग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लिखते रहिये. दूसरों को राह दिखाते रहिये. आगे बढ़ते रहिये, अपने साथ-साथ औरों को भी आगे बढाते रहिये. शुभकामनाएं.
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साथ ही आप मेरे ब्लोग्स पर सादर आमंत्रित हैं. धन्यवाद.
Kitne dard bhare ehsaas se likha gaya hai sab...patahee nahee chala ki kab padh gayee ! Dher saaree shubhkamnayen, itne achhe kary ke liye...aaj ham sabheeko is danav kaa virodh karna hai, manavko oopar uthana hai....
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