बुधवार, 5 नवंबर 2008

ये कहाँ जा रहे हैं हम...!

कल का दिन अजीब रहा. सुबह-सुबह अखबार (टेलीग्राफ) देखा तो ख़बर थी की नाल्गाओ में तीन हिन्दी-भाषी , बिहारी लोगों को मार दिया गया। मुझे तुंरत आभाष हो गया की यह परी देश फिर से झुलसने जा रहा है अलगाववाद की आग में…मैंने लोगों से इस बारे में चर्चा की तो उन्होंने मुझे दिलासा दिया की ये बहुत दूर हुई घटना है और ऐसा कुछ गुवाहाटी या शहर में नहीं होने वाला. पर बदकिस्मती से वो सभी ग़लत थे…शाम जब मैं बाजार जा रहा था तो हमारे यहाँ काम करने वाले कुछ मजदूर मिले जो बाजार से वापस आ रहे थे. उन्होंने हमने बताया की कुछ स्थानीय लड़कों ने उन्हें मारा-पीटा और कुछ पैसे भी छीन लिए. थोडी देर बाद ख़बर मिली की वहां से कुछ दूर मुस्लिमों को, जो स्थानीय लोगों के अनुसार बंगलादेशी हैं, मार-पीट कर भगा दिया गया है. हमारे यहाँ के जिन मजदूरों के साथ ये हुआ वो भी मुस्लिम हैं.
ये कहाँ जा रहे हैं हम…! अर्थशास्त्र में गुणक का सिद्धांता हमें बताता है कि किसी भी आर्थिक क्रिया पर जो प्रतिक्रिया होती है वह उस क्रिया की कई गुना होती है. मुझे लगता है कि गुणक का सिद्धांता हमारे जीवन के हर पहलू पर लागू होता है. हमारा एक कार्य समाज में जाने कितनी-ही प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है. जन्म लेने वाली प्रतिक्रिया का स्वभाव मूल क्रिया पर निर्भर करता है, यद्यपि इसके अपवाद भी हो सकते हैं. एक अच्छा काम और अच्छे कामों में तब्दील हो सकता है और बम-ब्लास्ट जैसा एक घृणित काम आगे चलकर मुस्लिमों पर जुल्म के रूप में भी सामने आ सकता है. क्या ये यहीं रुक जायेगा? कभी नहीं, क्यूंकि फिर से प्रतिक्रिया होगी और कुछ नया घटेगा जो बुरा ही होगा.
मेरी परीकथा में सब गड़बड़ होता जा रहा है…राक्षस ने तबाही मचनी शुरू कर दी है, लोग उससे डरे हुए हैं…कुछ लोग उसका विरोध भी करना चाहते हैं पर वो अकेले पड़ते जा रहे हैं, बेहद अकेले. राक्षस अट्टहास करता एक कोने से दूसरे कोने में दौड़ रहा है और जाने कितने बेगुनाह लोग उसके पैरों तले कुचले जा रहे हैं. दर्द की कराह धीरे-धीरे परी-देश को अपने चंगुल में लेती जा रही है. राजकुमार हैरान है…उसे लगता है कि अब हमारी परियों और छोटे-छोटे बच्चों का क्या होगा? बचपन में जब परिकथा में राक्षस आता था तो मैं चौक पड़ता था…रात में परियों के सपने के बीच वो घुस आता था और मैं चिहुंक कर उठ बैठता था। तभी माँ सर पर हाथ फेर कहती थी ‘बेटा सो जा, वो तो बस एक सपना था’। आज राक्षस सपने में पल-पल और भी अधिक डरावना होता जा रहा है पर ये बुरा सपना ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा; काश, कोई मुझे जगा दे और कहे ‘ये बस एक बुरा सपना था’…!
अगर ऐसे ही चलता रहा तो यहाँ कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा...शायद आसाम अपने पुराने दिनों की तरफ़ लौट रहा है जब यहाँ बारूद का धुआं था, चीखें थीं...नहीं थी तो बस शान्ति...मैंने कुछ 'बुद्धिजीवियों' से कहा कि वे कम से कम लोगों को यह तो समझा सकते हैं कि इस तरह से किसी एक सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ कुछ करना भी तो उचित नहीं है तो उनकी प्रतिक्रिया निराशाजनक थी। मैं उनका डर समझ सकता हूँ पर क्या करूँ...ये मन है कि मुझसे कह रहा हैकि तुम आज तो तमाशा देख रहे हो पर कल तुम ख़ुद भी तमाशा बन सकते हो...मुझे याद आ रही हैं अपने कविता 'सच और मैं' की आख़िरी पंक्तियाँ जो मेरी वर्तमान मनोदशा को बयान करती हैं
"यार सच!
मुझे माफ़ करना
मैं तेरे साथ रो भी नहीं सकता,
मर्द हूँ न इसलिए...!!!"

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