रविवार, 23 नवंबर 2008

होना अकेला भीड़ में...

आज-कल वो गीत बहुत याद आ रहा है..."मैं जहाँ रहूँ...तेरी याद साथ है"। उसमें ये पंक्तियाँ हैं न..."कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है, पर छुप के इस दिल में तन्हाई रहती है..."। इस फ़िल्म 'नमस्ते लन्दन' से मेरा रिश्ता बहुत-ही गहरा है...जिंदगी में ऐसे बहत से दौर आते हैं जिनकी परछाइयाँ आप फिल्मो, गीतों, और कहानियों में देखते हैं। इसका कारण (जो मुझे मेरे भतीजे की एक बात से मिला) यह है कि ये सभी हमारी जिंदगी से प्रेरित होकर ही तो बनती हैं...बस एक अन्तर ये है कि फिल्मों के अंत अक्सर सुखद होते हैं पर असल जिंदगी के बहुत-ही कम...!
आज मैं भी गुवाहाटी में नितांत अकेला महसूस कर रहा हूँ...अकेला तो मैं हमेशा से ही था, और मुझे ये जीवन काफ़ी कुछ पसंद भी था, किंतु आज तो और भी अकेला हो गया हूँ...
किसी के साथ होने का ये अर्थ नहीं कि वह आपके साथ-ही है...मैं एक भीड़ में हो सकता हूँ या फिर दोस्तों के बीच पर कुछ ऐसा हो सकता है कि मैं उस समय उन सभी से कहीं दूर, बहुत दूर खोया हुआ हूँ। मुझे लगता है कि भौतिक सामीप्य से मानसिक और भावनात्मक सामीप्य कहीं अधिक अर्थ रखता है...हाँ, यह बात भी सभी पर लागू नहीं होती।
ऐसा क्यूं होता है हम अक्सर जिसके साथ होते हैं, उसके साथ नहीं होते...वरना क्या राजू गाइड को रोजी मिलती...? ऐसा क्यूं होता है कि हमें जिसके साथ होना चाहिए, हम उसके साथ नहीं हो पाते...? ये ऊपर वाला भी बहुत-ही बड़ा शरारती है...हम सबसे खेलता रहता है...बिना ये परवाह किए कि हम पर क्या गुजर रही है...!

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