पतंग-सा चढ़ता गया
चांद आसमान पर,
ज्यूँ-ज्यूँ तनती रही ख्यालों की डोर;
चलती रही बयार रात भर
तुम्हारी गंध की, और
खड़कते रहे पात यादों के वन में;
अधूरी-सी बात
जो कह न सका ये कम्बख्त दिल
ओठों पर लरजती रही...
रह-रह कर चुभती रही
यही एक फाँस मन में:
'क्यूं होता है ऐसा,
कोई धंस जाता है
कहीं बहुत गहरे तक
जीवन में...?'
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