शुक्रवार, 22 जून 2007

तुम...(५)

कितना नजदीक ये आसमान,
चमकते थे मेरे सपने
तारों के साथ;

कितनी पास हर मंजिल,
कितनी छोटी राहें,
कितना गमकते फूल,
कैसा अंगार गुलमोहर,
सोने मढ़ा था अमलताश कल तक…!

कितने छोटे हुए ये हाथ,
टूटते तारे बने ख़्वाब,
दूर हों गयी हर मंजिल
और,
अंतहीन हर राह…
अब कहाँ फूल,
गुलमोहर उदास,
सिर झुकाए, एक-कोने
खड़ा गुमसुम अमलताश
आज क्यूं…?

‘क्या बदल गया रे मन…!’
मुड़कर देखा:
तुम नहीं थे साथ…!!!

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