शुक्रवार, 13 जुलाई 2007

मोड़...!

वहीँ खड़ा है गुलमोहर,
वैसे-ही महक रही रातरानी आज तक,
अभी भी नजर में है
वो पथरीली रहा,
और
वो मोड़,
जहाँ मिले थे हम;

मानता ही नहीं
ये पगला मन:
'तुम मेरे थे ही नहीं
कभी...'

कलेजे से लगाए बैठा है
एक दम तोड़ती आस:
'कभी तो
लौट आओगे तुम
मेरे ही पास...
पीछे सारी दुनिया छोड़...!'

इसी पागलपन में
खंगालता चल रहा हूँ मैं,
हर गली,
हर राह,
हर मोड़...!!


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