सोमवार, 9 जुलाई 2007

तुम...(६)

जाड़े की रात में
कसकर लपेटे शाल-सी
लिपटी है तन्हाई
मेरी आत्मा से,

तुम्हारे न होने के शून्य से आच्छादित
मैं,
सोचता हूँ:
'कुछ अस्पष्ट-से नाम,
आढ़ी-तिरछी रेखाएँ
मिटा नहीं सकते जिन्हें
हम चाह कर भी,
क्यूं उकेर देता है समय
हमारे हृदय पर...!!!'

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