गुरुवार, 20 सितंबर 2007

रे मन...! (2)

खुद को छलना छोड़ दे मन
प्यार देकर दर्द लेना,
दूसरों के जीवन की खातिर
मौत से कर्ज़ लेना
छोड़ दे रे मन...!

ये नहीं तेरा ठिकाना
साँझ ढलते लौट जाना,
राह की परछाइयों में
व्यर्थ तेरा दिल लगाना,
कुछ नहीं हासिल अरे मन...!!
खुद को छलना छोड़ दे मन...

Will come more of it as the pain shall rise...

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