मंगलवार, 11 अगस्त 2009

मोहे ब्रज बिसरत नहीं...

गोकुल के दिनों को याद करते हुए कृष्ण ने एक बार उद्धव से कहा:
'उद्धव मोहे ब्रज बिसरत नाही
हंस सुता की सुंदर कगरी
और वृक्षं की छाहीं...'
और यह भी सर्वविदित है कि कृष्ण एक बार गोकुल को छोड़ने के बाद दुबारा पलट कर वहां कभी नहीं गए। आख़िर ये क्या बात हुई कि आप हर किसी से कहते फिर रहे हैं कि आपको आपकी पुराणी जगह भुलाए नहीं भूलती पर आप पलट कर वहां नहीं जाते जबकि आपके लिए ये सर्वथा संभव था। मैं सोचा करता था कि इसके पीछे क्या राज रहा होगा...! और ये राज जब मुझ पर खुला तो मैं कृष्ण की दूरदर्शिता और सम्वेंदनशीलता का कायल हुए बिना न रह सका।
मुझे मेरे उस संस्थान में जहाँ से मैंने पी एच डी की हैं, एम फिल (विकाश अद्ध्य्यन) के पाठ्यक्रम निर्माण में कुछ सहायता के लिए बुलाया गया। जब मैं संस्थान (जी बी पन्त समाज विज्ञान संस्थान) में पहुँचा तो पुरा दिन तो बहुत व्यस्त रहा। जब शाम हुई तो मुझे याद आया कि इसी जगह पर मेरे साथ कल कितने लोग थे जिनसे कहे-अनकहे जाने कितनी रिश्ते जुड़ गए थे...जाने कितने सपने बिखरे थे इन् राहों में...गुलमोहर के फूल अपने में कितनी कहानियाँ लपेटे हुए थे और ये अमलताश जाने किसका श्रींगार करने की हसरत दिल में बसाए युगों से चुपचाप खड़े थे...! और इन् सबके बीच यादों को गर्म कम्बल की तरह कसकर लपेटे खडा था मैं...लग रहा था मैं क्यूं वापस आया...? मन में दोनों भाव एक साथ विद्यमान थे: 'मोहे ब्रज बिसरत नहीं...' और ब्रज में आने के बाद का सूनापन...!
जीवन कैसा अजीब है न...!!!

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