आँखें तो बहाना ढूढती है
छलकने का,
कभी तुमसे दूर होने की पीड़ा
तो कभी
पास होने की ख़ुशी।
लेकिन बहुत से पल ऐसे भी होते हैं
जब तुम दूर होकर भी दूर नहीं होती
या फिर
पास होकर भी कहीं दूर...
ऐसे पलों में क्या करें
बेचारी आँखें...!
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
बुधवार, 13 जनवरी 2010
कल की रात जौनपुर में तापमान मात्र ४ डिग्री रहा। इस दौरान मैं अमेठी में लगातार फील्ड वर्क के लिए गाँव-गाँव घूमता रहा अपने ड्राईवर के साथ। जब मुझे वैन के भीतर भी ठण्ड लगने लगी तो अहसास हुआ कि अब ठण्ड सचमुच बहुत ज्यादा हो गयी है। ये भी सोचता हूँ कि जब इतनी सुविधाओं के बावजूद मैं ठण्ड से काँप रहा हूँ तो वो गरीब लोग जिनके पास रहने के लिए एक ढंग की झोपड़ी तक नहीं है वो गुजारा कैसे करते होंगे...? आजादी की इतनी वर्ष गांठें पूरी करने के बाद भी ग़रीबों को न तो अपने नसीब से आजादी मिल सकी और न ही अपनी विवशताओं से। सरकार ने न जाने कितनी योजनायें चलाई और बंद की पर इन गरीबों की हालत जस की तस है। योजना लागू करने वाले सरकारी कर्मचारियों के मकानों में नयी-नयी मंजिलें जुडती गयीं पर गरीब की झोंपड़ी आज भी छिद्रान्वेषित छप्पर का छटा लगाये जर्जर दीवारों पर खड़ी है और पूछ रही है कि वो भारत-भाग्य विधाता कहाँ है जिसके गुण गा-गा कर फूले पेट और टेढ़ी टांगों वाले हमारे बच्चे बड़े होते हैं...हर बार लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री जो वादे छोटी छोटी वो गाँव के धरातल तक पहुँचने से पहले कहाँ गुम हो जाते हैं...? छोटी-छोटी तनख्वाह पाने वाले ये सरकारी कर्मचारी कैसे इतना रईशाना जीवन बिता पाते हैं...? कल तक छोटे-मोटे काम करने वाला ग्राम प्रधान अचानक इतना अमीर कैसे हो जाता है...? और तो और, हमारे नेता गण कैसे अचानक इतने अमीर हो जाते हैं कि वो चुनाव में टिकेट पाने के लिए १-१ करोड़ रूपये खर्च कर देते हैं...? उत्तर हर कोई जानता है पर कोई स्वीकार नहीं करना चाहता। लोग भ्रष्टाचार का विरोध इसलिए भी नहीं करना चाहते कि वो स्वयं उस से कभी लाभ पाने की आशा सजोए बैठे होते हैं। अगर कोई किसी जांच में किसी भ्रष्ट कर्मचारी को पकड़ ले तो बाकी सभी उसे ही बचाने में लग जाते हैं...! ऐसे में अगर आप ईमानदारी से जीवन बिताना व गरीबों के लिए काम करना चाहते हैं तो आपके इष्ट-मित्र व रिश्तेदार आपसे किनारा करने लग जाते हैं क्यूंकि उनके अनुसार आपके दिमाग में कोई न ठीक हो सकने वाली दिक्कत आ गयी है...! वातावरण का ठंडापन तो सह भी लिया जाये पर रिश्तों के इस ठंडेपन का कोई क्या करे...???ऐसे में क्या कोई आस बाकी भी है...!!!
किन्तु सब कुछ अभी ख़त्म नहीं हुआ है...मैं गौरीगंज ब्लाक के अर्गावां गाँव में महिलों के समूह का अध्यन कर रहा था जिस दुआरान मैं उनकी समस्याओं से रूबरू हुआ। मैंने उस गाँव में एक रात भी बिताई और उन्हें करीब से जाना-समझा। उनकी समस्याओं के हल के लिए मैंने अपने स्तर पर प्रयास किये और इश्वर की कृपा से वो प्रयास कारगर भी हुए। कल जब मैं अमेठी में अपना काम पूरा कर वापस जौनपुर लौट आया तो अर्गावां से महिलाओं का फ़ोन आया वो बिलकुल भी नहीं चाहती थीं कि मैं उन्हें उन्हें छोड़ कर मुंबई वापस जाऊं। मेरे यह कहने पर कि मेरा सारा काम तो मुंबई में ही पड़ा है उन लोगों ने कहा कि मैं अपना काम मुंबई से उठा कर उनके गाँव ले जाऊं और मेरे लिए वो महिलायें एक घर बना देंगी तथा मेरे भोजन आदि की सारी व्यवस्था वो देख लेंगी...! मेरे काम की इस से बेहतर तारीफ़ आज-तक मुझे नहीं मिली थी...इस से यह भी पता चलता है कि अगर ईमानदारी से काम किया जाए तो लोगों का नसीब और दिल दोनों ही बदला जा सकता है...बस आप यश के मोह में न पड़ें...
किन्तु सब कुछ अभी ख़त्म नहीं हुआ है...मैं गौरीगंज ब्लाक के अर्गावां गाँव में महिलों के समूह का अध्यन कर रहा था जिस दुआरान मैं उनकी समस्याओं से रूबरू हुआ। मैंने उस गाँव में एक रात भी बिताई और उन्हें करीब से जाना-समझा। उनकी समस्याओं के हल के लिए मैंने अपने स्तर पर प्रयास किये और इश्वर की कृपा से वो प्रयास कारगर भी हुए। कल जब मैं अमेठी में अपना काम पूरा कर वापस जौनपुर लौट आया तो अर्गावां से महिलाओं का फ़ोन आया वो बिलकुल भी नहीं चाहती थीं कि मैं उन्हें उन्हें छोड़ कर मुंबई वापस जाऊं। मेरे यह कहने पर कि मेरा सारा काम तो मुंबई में ही पड़ा है उन लोगों ने कहा कि मैं अपना काम मुंबई से उठा कर उनके गाँव ले जाऊं और मेरे लिए वो महिलायें एक घर बना देंगी तथा मेरे भोजन आदि की सारी व्यवस्था वो देख लेंगी...! मेरे काम की इस से बेहतर तारीफ़ आज-तक मुझे नहीं मिली थी...इस से यह भी पता चलता है कि अगर ईमानदारी से काम किया जाए तो लोगों का नसीब और दिल दोनों ही बदला जा सकता है...बस आप यश के मोह में न पड़ें...
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