शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

मैं क्यूँ लिखता हूँ...



मैं क्यूँ लिखता हूँ’, यह प्रश्न भिन्न-भिन्न स्तरों पर उठ सकता है। प्रथम और साधारणतम् स्तर पर दूसरे मुझसे यह प्रश्न कर सकते हैं; दूसरे और व्यैक्तिक स्तर पर यह प्रश्न मेरे अंतरमन द्वारा मुझसे किया जाता रहा है। अपेक्षाकृत कम नामचीन होने का एक लाभ यह है कि मैं बाहरी दुनिया द्वारा इस प्रश्न के पूछे जाने से बहुधा बचा ही रहता हॅूं। इसके लिए मैं तमाम सम्पादक गणों का शुक्रगुजार हॅूं...! रही बात इस प्रश्न के दूसरे स्रोत की तो मेरा मन मुझसे अक्सर यह प्रश्न करता रहता है।
                       
मेरा मन मुझसे पूछता रहता हैः ‘क्यूँ लिखते हो तुम एक ऐसे युग में जहॉं तुम्हें जानने वाला, तुम्हें पढ़ने वाला कोई नहीं...?’ तत्क्षण एक उत्तर कौंधता है मन मेंः ‘मुझे तो कोई जानने वाला भी नहीं है तो क्या मैं जीना छोड़ दॅूं...!’

किसी घटना के बारे में कुछ कहने से पहले उसके उत्पन्न होने की परिस्थितियों पर एक नजर डालना श्रेयस्कर रहता है। मेरा लेखन कम-से-कम मेरे लिए तो एक घटना है ही (किसी की नजर में यह दुर्घटना भी हो सकती है...!) पढ़ने का शौक बचपन से रहा मुझे और इसका पूरा श्रेय मेरी मॉं को जाता है जिन्होंने मुझे नंदन तथा वीर बालक से कहानियॉं सुना-सुना कर बड़ा किया। चूंकि मॉं को घर के सारे काम भी देखने होते थे अतः मैंने कहानियों की लालच में उस उम्र में पढ़ना सीख लिया जब बाकी बच्चे वर्णमाला का अभ्यास कर रहे होते हैं। मेरे मॅंझले भाई को चित्रकथाएं पढ़ने का बहुत शौक था सो मुझे इंद्रजाल कामिक्स (फैंटम, बहादुर, और मैन्डे्क) तथा अमर चित्रकथाएं बहुतायत से मिलती रहीं। इन सारी किताबों में एक चीज समान थीः अन्याय के विरुद्ध संघर्श...! मेरे बालमन पर एक गहरी छाप छोड़ी इन जॉंबाज कथानायकों ने। मन में एक विश्वास पनपता गया कि अगर दुनिया में बुरे लोग हैं तो इनसे लड़ने वाले अच्छे लोग भी हैं...जीवन का सही अर्थ दूसरे के चेहरे पर मुस्कान देखना भी हो सकता है...! मुझे याद आता है कि कक्षा 7-8 तक पहुँचते-पहुँचते मैंने अपने भाइयों के कोर्स की अधिकांश पुस्तकों का अनधिकार रसास्वादन कर लिया था जिनमें साहित्य से लेकर मनोविज्ञान तक शामिल था। मैंने जब पहली बार ‘नमक का दरोगा’ व ‘हार की जीत’ पढ़ी थी तो अंत में मेरी ऑंखों में ऑंसू आ गए थे इसके नायक की सत्यनिष्ठा पर विचार करके और यह कम उम्र का बचकानापन न था क्यॅूंकि यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। मेरी नजर में यह एक कालजयी कहानी की पहचान है।

मेरे लेखन के प्रारम्भ के विशय में कुछ रोचक यादें हैं मेरे पास। मुझे याद है कि कक्षा 7-8 में मैं जासूसी उपन्यासों से प्रेरित हो एक बाल-जासूसी उपन्यास की रचना करने लगा था। इसकी रचना का समय भी बड़ा मजेदार थाः दो पीरियड के बीच शिक्षक के क्लास में आने का अंतराल और रही बात इसकी लोकप्रियता की तो इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि इसके लेखन हेतु पेज मुझे साथी छात्रों से प्राप्त होते थे; बदले में मुझे इन साथियों को इसका प्रथम वाचन का अधिकार देना होता था। जोरदार जासूसी उपन्यास लिखा जा रहा था कि अचानक किसी ने इसकी पाण्डुलिपि पर ही हाथ साफ कर दिया। जासूस महोदय खुद का पता न लगा सके और आर्थर कॉनन डायल को एक सशक्त प्रतिद्वन्दी मिलते-मिलते रह गया...! इस दौरान मेरे हिन्दी शिक्षक ने बहुत-से प्रयास किए मुझे कविता लिखने के लिए प्रेरित करने हेतु किन्तु वे सभी प्रयास वैसे ही विफल रहे जैसे बांझ औरत की पुत्रेच्छा। तब किसे पता था कि एक वर्ष बाद यही लड़का कविताएं सुना-सुना कर पुरे नवोदय को बोर कर देगा। नवोदय-मड़ियाहॅूं में तीन पी0 जी0 टी0 शिक्षकों आर0 पी0 सिंह, एस0 के0 त्यागी व बी0 सी0 पन्त का आना मेरे जीवन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मोड़ रहाः इस गुरुत्रयी ने मेरे लिए ज्ञान के अद्भुत संसार के द्वार खोल दिए। जाने कितने प्रयासों के बावजूद बन्द मेरी रचनाधर्मिता के द्वार चरमराकर खुल गए...परिस्थिति की विद्रूपता कभी भी स्वीकार्य न रही मुझे और क्या आश्चर्य था कि मेरी दूसरी कविता एक व्यंग्य थी देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के उपर । मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी कविता यात्रा की शुरुआत आर0 पी0 सिंह सर की प्रगतिवादी कविताओं से प्रभावित होकर हुई वरना रीतिकाल के प्रशंसक अन्य शिक्षक मेरी काव्य-प्रतिभा का प्रस्फुटन करवाने में सर्वथा असफल रहे थे।

मुझ पर अपने साहित्यक गुरु श्री आर0 पी0 सिंह सर का एक और प्रभाव पड़ा और वह था छपासपीड़ा से कोई वास्ता न होना। उन्होंने मुझसे कहा थाः वही लिखना जो स्वयं महसूस करना; कभी छपने के लिए लेखनी को बेचना मत। मैंने भी कभी समझौता नहीं किया अपने लेखन में...वही लिखा जो मुझे सत्य लगा। इस सम्बन्ध में एक मजेदार वाकया याद आता है मुझेः मैं बी00 द्वितीय वर्ष में था शायद। एक साहित्यकार मिले गंगा प्रसाद शर्मा जी। उन्होंने मुझे प्रेरित किया किसी स्थानीय अखबार में कॉलम लिखने के लिए। सो मैंने अपनी चिरसंगिनी साइकिल देवी की सवारी गाठी और जा पहुँचा 18 किलोमीटर दूर जौनपुर शहर स्थित एक अखबार के दफ्तर में। वहॉं सम्पादक महोदय किसी डेयरी वाले को धमका रहे थे कि वह उन्हें विज्ञापन नहीं देगा तो वो उसकी ‘पोल’ खोल देंगे समाचार पत्र में। उससे निपट कर उन्होंने मेरी तरफ कृपा दृष्टि फेरी। मैं कुछ रचनाएं साथ ले गया था जिनमें से एक थी अज्ञेय की कविता ‘सॉंप के प्रति’ की पैरोडी जो मैंने चारा घोटाले के नायक के लिए लिखी थी। वह उन्हें बहुत पसन्द आयी और मुझे तत्काल दैनिक कॉलम लिखने का जिम्मा सौंप दिया। मैंने विनम्र भाव से पूछा कि महोदय मैं अभी विद्यार्थी हॅूं, अगर आप मुझे कुछ पारिश्रमिक दे सकें मेरी रोज की मेहनत का तो मैं कृतार्थ होउंगा। उनका उत्तर बहुत ही चौंकाने वाला थाः अगर मैं इसके पैसे दूंगा तो कॉलम पर नाम किसी और का दिया जायेगा...! मैं अवाक रह गया पर मेरे अंदर बैठे विद्रोही मन ने इस सारी स्थिति की विद्रूपता को देख चन्द पंक्तियॉं रच डालींः

‘‘ देख मेरी रचना को सत्वर
गदगद संपादक ने बैठाया,
कॉलम दॅूंगा एक तुम्हें मैं,
सब्जबाग मुझको दिखलाया;
पारिश्रमिक के नाम पर झिड़क दिखाया द्वार,
अच्छी-भली जिन्दगी थी क्यॅूं कर डाली बेकार...!
इधर-उधर भेजी थीं जो
रचनाएं आईं वापस फिर से,
इस चक्कर में चिन्तन करके
बाल उड़ गए सारे सिर के;
क्षीण हुई नयनन् की ज्योति, चढ़ गया चष्मा यार...
अच्छी-भली जिन्दगी थी क्यॅूं बन गए हम लिख्खाड़...!’’
मैं उलटे पॉंव लौट आया। लगभग एक वर्ष पश्चात वही सम्पादक महोदय मेरे समाचार छाप रहे थे...! यह मेरा पहला अनुभव था साहित्य के बिकाऊ बाजारवाद पर विजय की।

वर्तमान समय में एक विशिष्ट प्रकार की कहानियॉं बहुधा पढ़ने को मिल जाती हैं जिनमें पात्रों की प्रेम  लीला का वर्णन अत्यन्त तन्मयता से किया होता है...‘उह..आह..आउच..’की आवाजों के साथ। ऐसी कम-से-कम एक कहानी लिखना प्रत्येक नवोदित लेखक की प्रतिभा की कसौटी (और आगे बढ़ने का सहज मार्ग...!) बन गया है। और मजा तो तब आता है कि जब पुरानी पीढ़ी के महामहोपाध्याय लोग इन पर विशद् चर्चा कर ऐसे लेखकों को पुरस्कार देते हैं। प्रेम और इससे जुड़ी समस्याएं साहित्यकारों को सदैव से आकर्षित करती रही हैं किन्तु क्या इनका वर्णन ‘उह..आह..आउच..’ के बिना नहीं हो सकता...? ‘नारी-विमर्ष’ के नाम पर नारी के कपड़े उतरना साहित्यक पोर्नोग्राफी से अधिक क्या है...? ‘उह..आह..आउच..’ वाला यह साहित्य व ‘नारी विमर्ष’ समाज को क्या राह दिखायेगा यह विचारणीय है। यह art for art's sake के लिहाज से तो शायद युक्तिसंगत मान भी लिया जाए (हालांकि यहॉं भी कला में नग्नता की सीमा का प्रश्न उठ खड़ा होगा) art for life's sake से तो यह कोसों दूर है। यहॉं प्रश्न यह नहीं है कि इन दोनों में से कौन-सा सही है और कौन-सा गलत, अपितु यह है कि किसकी आवश्यकता अधिक है। किसी भी विचार, कार्य का सही-गलत होना उस देश-काल की परिस्थिति पर भी निर्भर करता है और वर्तमान समय को दृष्टिगत् करने पर ऐसी रचनाओं की बाढ़ पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है। वर्तमान समय की एक मूलभूत समस्या कम-से-कम मेरे अनुसार भ्रष्टाचार है...जीवन के प्रत्येक पहलू को आच्छादित करता ‘शेषनाग-सा भ्रष्टाचार’[1] । सदैव से कवि व लेखकों को समाज के बुद्धिजीवी वर्ग में गिना जाता रहा है और उनसे यह अपेक्षा की जाती रही है कि वे समाज को राह दिखाएं। ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ इस उक्ति पर विचार करने की आवश्यकता है। दर्पण के रूप में साह्रित्य दो प्रकार से कार्य करता हैः प्रथम, यह समाज में हो रही घटनाओं को ज्यॅूं का त्यॅूं प्रतिबिम्बत कर देता है। द्वितीय, यह समाज के लिए भविष्य-दर्पण का भी कार्य करता है...यह आने वाले समय और जो आदर्श रूप में आना चाहिए, उनका एक चित्र उपस्थित करता है। समाज को राह दिखाना साहित्यकार  का गुरुतर कर्त्तव्य है जिससे मुँह मोड़ना किसी भी हाल में श्रेयस्कर न होगा। 

एक दृष्टि अपनी रचना-प्रक्रिया पर भी डाल लॅूं। जब कुछ ऐसा देखता हॅूं जिसे मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाता तो एक प्राणबीज पड़ जाता है अंतर्मन मेंः विचार मंथन चलता रहता है और यह बीज निरंतर बड़ा आकार लेता रहता है और एक दिन वह समय भी आता है जब रचना उसी प्रकार छटपटाती है बाहर आने के लिए जिस प्रकार गर्भस्थ शिशु...प्रसवपीड़ा से निवृति रचना को मूर्त रूप देने पर ही मिलती है। मेरी लिखी पहली कहानी ‘‘हरिजन एक्ट’’[2] विरोध का एक स्वर है किसी सही कानून के दुरुपयोग के खिलाफ। ‘‘सच और मैं’’[3] ग्रेजुएशन के दौरान कॉलेज में घटी एक शर्मनाक घटना के विरोध में उठा स्वर था। ‘कथादेश’ के अगस्त 2008 अंक में प्रकाशित कहानी ‘‘घेरे’’ की कथावस्तु किसी ऐसे ही पात्र की कहानी है जो तथाकथित ‘मुख्य धारा’ से निरंतर कटता जा रहा है। इसका विचार मन में काफी पहले ही जन्म ले चुका था परन्तु रचना अंतर्मन में कहीं आकार लेती रही एक दीर्घ अवधि तक।

वर्तमान समाज एक बहुत ही खतरनाक दौर से गुजर रहा है। यह दौर है मूल्यों के संकट का...मूल्यों पर संकट का। अव्वल तो लोगों के पास जीवन-मूल्य रहे ही नहीं अगली पीढ़ी को देने के लिए और जिनके पास हैं भी वो खुद संशयग्रस्त हैं कि क्या ये जीवन-मूल्य आज के दौर में किसी काम के भी हैं अथवा नहीं...! समाज की नींव बनाने वाले शिक्षक वर्ग की नींव आज स्वयं हिली हुई है। जिनके घर की नींव रेत में घंसी हुई है उनसे क्या आशा शरण की...? अब तो आश्चर्य होता है कि यह वही देश है क्या जहॉं वशिष्ठ जैसे गुरु हुए थे...! ऐसे नाजुक दौर में साहित्यकार का दायित्व और भी गुरुतर हो जाता है...समाज को सही दिशा दिखाने का उत्तरदायित्व साहित्यकार के ही ऊपर आता है। मुझे एक कहानी स्मरण हो आई हैः एक गॉंव में एक तालाब को दूध से भरने की बात तय हुई। प्रत्येक गॉंववासी को एक-एक लोटा दूध तालाब में डालने को कहा गया। हर किसी ने एक लोटा पानी डालकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली कि दूसरे तो दूध डालेंगे ही, एक मेरे न डालने से क्या फर्क पड़ेगा। नतीजा ये रहा कि तालाब दूध की जगह पानी से लबालब भर गया और दूध की एक बूँद भी न पड़ सकी उसमें। कुछ-कुछ ऐसी ही हालत आज साहित्यकारों की हो गयी है...हर कोई सोचता है कि मूल्यों, आदर्शों की बात तो दूसरे कर ही लेंगे, लाओ मैं अपना लाभ तो ले ही लॅूं। एक दिन साहित्य भी ऐन्द्रिक सुख देने वाले ‘उह..आह..आउच..’ छाप रचनाओं से भर जायेगा और हमारे अपने बच्चे भी इसी का रसास्वादन करेंगे। आप यह पूछ सकते हैं कि भाई एक आपके लेखन से कौन-सी क्रान्ति आ जाने वाली है तो मैं यही कहॅूंगा कि मुझे प्रसन्नता है कि मैंने ‘तालाब’ में दूध डाला है पानी नहीं भले ही इसका परिमाण कितना ही न्यून क्यॅूं न हो। एक ऐसे समय में जब लोग यह तर्क देते हों कि भ्रष्टाचार से विकास होता है, भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखना जरूरी है।

मुझे ऐसा लगता है कि मैंने विचार रूपी एक अग्निस्फुलिंग उछाल दिया है समाज में...अब जिस दिए में स्नेहासिक्त बाती होगी, वह प्रज्ज्वलित हो सकेगा; जिस हृदय में बारूद का ढ़ेर होगा, वह विस्फोट कर सकेगा। शायद ये छोटे-छोटे प्रयास समाज की विद्रूपता को दूर कर सकें। संभवतः लोग इन विचारों पर हॅंसेंगे और इसे ‘टिटिहरी प्रयास’ की संज्ञा दें परन्तु मैं इसे ‘रामसेतु’ निमार्ण में गिलहरी का योगदान कहॅूंगा। पहले मुझे भी कभी-कभी लगता था कि सच को पसन्द करने वाले अब शायद नहीं रहे दुनिया में किन्तु जब मेरी प्रथम प्रकाशित कहानी ‘‘लंगड़ा अमरत्व’’[4]  पर मुझे बुद्धिजीवी वर्ग की जबरदस्त सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली तो लगा कि मैं उतना अकेला भी नहीं जितना समझता हॅूं। निःसंदेह सच को पसन्द करना एक बात है और सच का पक्षधर होना दूसरी। किन्तु जो सच को पसन्द करता है उसे सत्य का पक्षधर होने के लिए भी शायद राजी किया जा सके।  

एक बात स्पष्ट कर दॅूंः मैं साहित्य के किसी भी ‘वाद’ में स्वयं को शामिल नहीं कर पाता। मेरी दृश्टि में मानवमात्र का कल्याण सर्वोच्च साध्य है। अतः यदि ‘वाद’ का लेबल लगाना आवश्यक ही है तो मैं स्वयं को मानवतावादी कहना पसन्द करूँगा। मानव से बढ़कर कुछ भी नहीं है मेरे लिए। मेरी विचारधारा के अपने खतरे हैं। सबसे बड़ा खतरा है साहित्यक समुदाय की उपेक्षा व नाराजगी। चॅूंकि ‘उह..आह..आउच..’ और ‘नारी के कपड़ा उतार विमर्ष’ को समर्थन देने वाले सम्पादक बहुसंख्य है अतः प्रकाशनहीनता का खतरा अवश्यम्भावी है। किन्तु धारा के विरुद्ध चलने का अपना ही एक आनन्द है। मुझे लगता है कि मेरे अंदर दो मन हैं; एक जो वतर्मान व्यवस्था और समाज की विसंगतियों से परेशान है और दूसरा जो आदर्शों पर चलने वाला, अत्यन्त र्निभीक मन है। बहुधा मेरा पहला मन थक जाता है समाज से लड़ते-लड़ते और खासकर एक ऐसी लड़ाई लड़ते जिसे वह रोज थोड़ा-थोड़ा करके हार रहा है। हताश हो यह पहला मन शक्तिपूजा के खिन्नचित्त राम की भांति कह उठता हैः
‘‘अन्याय जिधर है शक्ति उधर...आया न समझ में यह दैवी विधान;
रावण, अधर्मरत् भी, अपना, मैं हुआ अपर-’’
किन्तु ठीक उस पल जब मैं थककर मैदान छोड़ने की सोचने लगता हॅूं मेरा दूसरा मन ललकार उठता है। यह कुछ वैसी-ही स्थिति होती है जैसी ‘शक्तिपूजा’  के दृढ़प्रतिज्ञ राम की थीः
‘‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय’’
और मैं दोगुने उत्साह के साथ फिर लग जाता हॅूं अपने संघर्ष में। मैं चल रहा हॅूं उस राह पर जो मुझे बेहतर लग रही है। आशा है कि समानधर्मा सहचर मिलेंगे राह में किन्तु अगर अकेले भी चलना पड़े तो किसी भी प्रकार का पछतावा नहीं होगा और न ही किसी और को होना चाहिए। मैं अपनी बात का समापन राबर्ट ब्राउनिंग की पंक्तियों के साथ करना चाहॅूगाः
“Two roads diverged in a wood, and I
I took the one less traveled by;
And that has made all the difference”

दुर्गेश विप्लव


[1] मेरी एक कविता से: www.durgesh-the-dreamer.blogspot.com पर उपलब्ध।
[2] अप्रकाशित (इसने मेरे जनपद के कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता था)
[3]   अमर उजाला’ 30 जनवरी, 1998, पृश्ठ 4 में प्रकाशित। यह कविता मेरे ब्लाग: www.durgesh-the-dreamer.blogspot.com पर उपलब्ध है।
[4]दैनिक जागरण’ 10 फरवरी, 2006, पृष्ठ 12 में प्रकाशित।

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