गुरुवार, 20 सितंबर 2007

रे मन...! (2)

खुद को छलना छोड़ दे मन
प्यार देकर दर्द लेना,
दूसरों के जीवन की खातिर
मौत से कर्ज़ लेना
छोड़ दे रे मन...!

ये नहीं तेरा ठिकाना
साँझ ढलते लौट जाना,
राह की परछाइयों में
व्यर्थ तेरा दिल लगाना,
कुछ नहीं हासिल अरे मन...!!
खुद को छलना छोड़ दे मन...

Will come more of it as the pain shall rise...

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

Bhrastaachaar ke khilaaf...

आओ बहमन, आओ ठाकुर,
आओ कोली और कलवार,
लाला जी तुम भी आ जाओ,
आओ भंगी और चमार...
अलग-अलग है जात हमारी,
एक लहू हम सब का है;
और एक है शत्रु हमारा: शेषनाग-सा भ्रष्टाचार....!

आशा की कश्ती में छेदा
डगमग नइया बीच मझार,
रक्षक ही भक्षक बन बैठा
व्यापा चहुँ दिश हाहाकार;
डाकू सारे नेता बन गए
सो मत जाना पहरेदार...!!
आओ बहमन, आओ ठाकुर......



To be completed later....

बुधवार, 5 सितंबर 2007

तुम...(9)

रग-रग में दौड़ती तेरी याद,

अब खौलने लगी है...

सहा नहीं जाता

अब ये ताप अंतस का...!



झुलस रहीं हैं कलियाँ सपनों की,

नेह-सोते सूखे सभी...

और

फैलता आ रहा एक मरुथल

मन में कहीं...!!



छा जाओ फिर से

बनकर गदराई बदरी
मेरे तन पर,


मन पर,

जीवन पर....!!!