मंगलवार, 26 जून 2007

रे मन...!

झुकना नहीं रे मन !

चाहे कड़ी धूप लगे,
क़दमों तले छाले पड़ें,
राह में थक कर
रुकना नहीं रे मन...!!

दूर तेरी मंज़िल है,
चलना तेरा हासिल है,
राह के छलावों में
फ़ंसना नहीं रे मन...!!

अंतस के ताप को,
दिए में ढाल ले,
अपने मनः-प्राण को
बाती-सा बाल ले,
आँधियों मे भी जल तू,
बुझना नहीं रे मन...!!!



To be completed later...

शुक्रवार, 22 जून 2007

तुम...(५)

कितना नजदीक ये आसमान,
चमकते थे मेरे सपने
तारों के साथ;

कितनी पास हर मंजिल,
कितनी छोटी राहें,
कितना गमकते फूल,
कैसा अंगार गुलमोहर,
सोने मढ़ा था अमलताश कल तक…!

कितने छोटे हुए ये हाथ,
टूटते तारे बने ख़्वाब,
दूर हों गयी हर मंजिल
और,
अंतहीन हर राह…
अब कहाँ फूल,
गुलमोहर उदास,
सिर झुकाए, एक-कोने
खड़ा गुमसुम अमलताश
आज क्यूं…?

‘क्या बदल गया रे मन…!’
मुड़कर देखा:
तुम नहीं थे साथ…!!!

मंगलवार, 19 जून 2007

सपने...(१)

हर कोई शामिल मेरे सपनों में:
भूखे की चाहत
एक अदद रोटी की,
गुड़िया-सी बिट्टी की
ख्वाहिशें छोटी-सी,
और सबसे छिपकर सिकुड़ी-सिमटी
तुम...!!!

चीर गयी दिल को
एक पीर खामोशी से
जब जाना,
किसी के भी सपनों में
मैं शामिल नहीं...!!!

शनिवार, 16 जून 2007

सच और मैं

रे सच!
फिर हार गया न…?
तू तो बना ही है
हारने के लिए.
अरे, अरे
तू तो रोने लगा!!
अच्छा..s--s--
बात दिल को लग गयी इसलिये;
अरे यार!
सदिया गुजर गईँ
पर तू रहा बेवकूफ का बेवकूफ,
अबे गधे
इतने दिन से लात-जूते खा रहा है
तब तो नहीं रोया
और आज,
आज तुझे मेरी छोटी-सी बात लग गयी!!
अच्छा सच!
सच बता,
क्या तू घुमक्कड़ था
जो चौदह बरस घूमता रहा वां में
वानर-भालुओं के साथ,
श्री-विहीन…?
कैसा लगा था तुझे
अनृत** पर विजय हेतु
शक्ति की चिरौरी करते…?
मगर,
तब तो तेरी आंखों से
चौदह बरस का निस्सहाय परिताप
नहीं निकला था
जल बनकर;
फिर आज क्यूं…?
यार सच!
देख मेरी आंखों में
और
सच बोल,
क्रॉस पर लटके-लटके
तुने सही होगी असीम पीड़ा
किन्तु
तब तो तू नहीं रोया;
फिर आज क्यूं…?
अच्छा चल
यही बता दे
विषपान करते समय
क्या छा गया था तेरी आंखों का आगे भी
मृत्यु का अँधेरा…?
किन्तु
तब तो तू हँसता रहा
फिर आज क्यूं रो रहा है…?
चल तुझे एक कहानी सुनाता हूँ…
ढ़ेर लग गया था मेरे पास
सिद्धांतो-आदर्शों और
सत्याप्रियता व न्यायप्रियता की लेमनचूसों का
जो बचपन से मुझे मिलती रहीं
गुरुजनों और परिजनों से
जब भी मैं
अन्याय के द्वारा लातियाये जाने पर
रोने लगा, तब.
मैंने सोचा,
शास्त्र कहते हैं…
अपरिग्रह
तो लाओ
आज बाँट दूँ
दो-चार लेमनचूस बच्चों और बूढों में.
तो यार!
मैंने,
सबसे पहले एक बच्चे को पकडा और
धर दिया उसकी नहीं हथेली पर
दो-चार लेमनचूस
मेरे बचपन वाले,
बच्चा तो खुश हों गया
(जैसे मैं होता था बचपन में)
पर उसका बाप
बाप रे बाप!
झपटकर छीना और
फ़ेंक दिया वो लेमनचूस,
और मुझे..s--
मुझे दीं जीं-भर के गालियाँ
मैं उसके बच्चे को बिगाड़ जो रहा था.
खैर,
मैंने हिम्मत नहीं हारी
और
जा पकडा एक ख्यातिप्राप्त समाज-सुधारक,
बुद्धिजीवी,
महामहोपाध्याय को
और झट धर दिया एक लेमनचूस
उनकी चौड़ी-चकली हथेली पर.
मुफ़्त का माल,
उन्होने गप-से मुह में डाला
किन्तु ये क्या,
उनका चेहरा क्यूं विकृत हो रहा है?
“आ..s-- क..s-- थू…s--”
बेचारा लेमनचूस मुँह से निकल
जा पड़ा कुदेदान में.
“क्यूं बे…s--
कुनैन की गोली दीं थी क्या?”
नहीं भाई,
ये तो सत्य की लेमनचूस है
जो बचपन में मुझे
आपने ही दी थी.
बस,
फिर क्या था
थप्पड़, लात, जूते
और जाने क्या-क्या…
खैर,
चेतनाहीन होने से पहले मैंने सुना…
“अबे गधे,
ये लेमनचूस तुझे दी थी
दूसरों को दिखाने के लिए
और तुने इसे मुझे ही खिला दिया…!!
दीदे फाड़कर देख ले
तेरी इस ‘सत्य की लेमनचूस’ की जगह
थूकदान में है
समझा…s--”
यार सच!
तुझे इतनी बढिया कहानी सुनाई
फिर भी तू रो रहा है!!
बस, यार बस
चुप हो जा
वरना
बह निकलेगी मेरी आंखों से भी
युगों की संचित
यह घनीभूत पीड़ा;
और
तब यही दुनिया
जो मेरी अवसरवादिताजनित नपुंसकता को
‘बुद्धिमत्ता’, ‘समायोजनशीलता’
आदि-आदि नामों से नवाजती है,
मेरी आत्मा के आंसुओं को
नामर्दी का खिताब दे देगी.
यार सच!
मुझे माफ़ करना,
मैं तेरे लिए रो भी नहीं सकता;
‘मर्द’ हूँ न
इसलिये.
..

* This poem has been published in ‘Amar Ujala’ (January 30, 1998; page 04).
**Anrit=Asatyaa

शुक्रवार, 8 जून 2007

SNOW

“The Snow”:
Blood dripping from a broken heart…over the snow…in a world which is as cold and indifferent as snow…!
A must for all those who have ever loved anyone…
KA, a true poet, an unfortunate lover, a loner, and in the end, a looser…spent the three most valuable days of his life doing things for others, though inadvertently, working as a negotiator, as a lover who longs for the company of Ipek simply for happiness, as a person who was made to witness some untoward incidents and even to become a part of them. Actually, KA had died in Kars itself when Ipek fails to show up at the train to Germany. Only, it was a matter of time that he was shot up after four years.
Ipek is a woman who can never love anyone but herself.
"Snow" is a personal tragedy, brilliantly interwoven in background of socio-political-religious turmoil. A man gets nothing from his love but sorrow...!
I would have missed a great experience if haven’t read this novel…thanks to Prof. Roy who provided this book to me.
If you want to discuss literature with me, visit this link:

बुधवार, 6 जून 2007

तुम..(4)

तुम,
स्नेहिल छाया-सी
ईश्वर की,
सर्वत्र व्याप्त;
मुझे परिवेषि्ठत करती हुई...
कैसे दूर जाॐ...?

तुम...(3)

तुम,
कोई मीठी-सी याद
बचपन की,
चाहकर भी भूल नहीं सकता...!!

तुम...(2)

तुम,
यूं धंस गए
मेरे वजूद में
ज्यूँ मंत्रबिद्ध कील;
आख़िर क्यूं...?

शनिवार, 2 जून 2007

तुम क्या गए

तुम क्या गए,
एक युग चला गया
मुझे छोड़...

तन्हा-से रह गए:
ये मन,
ये राह,
पैरों से लिपटे
ये मोड़...!!!

शुक्रवार, 1 जून 2007

नदी का जन्म कैसे होता है...!

लो
फिर झुका प्यासी धरती पर
तेरे नेह का बादल...
और,
नम हो आया कोई शुष्क-सा कोना
मेरे अंतस का;

उमड़ी इन आंखों में फिर एक नदी...
पर,
प्यासी ही रह गयी ये धरती
एक बार फिर से...!!!

तुम पूछ रही थी:
'नदी कैसे बनती है...?'

अधूरा-सा प्रश्न

मैं,
एक वृत्त खींचना चाहता हूँ.....
जिसकी परिधि मेरी बाहें हों,
क्या तुम
इस वृत्त का केंद्र बनोगी.....?

तुम...!! (1)

जिस पल तुम सामने होती हो
जीवन होता है,
उसके पहले,
उसके बाद,
महज एक शून्य
सांय-सांय सन्नाटा...
अपनी-ही आवाज उन सारे पलों को छूकर आ रही है
जिनमें तुम नहीं थी...!

तुम्हारा होने का सुख,
तुम्हारे न होने की पीड़ा,
अमूल्य निधियाँ हैं ये सब
हृदय के संग्रहालय की...!!!

ईश्वर...!!!

ऊपर जो बैठा है
खुद में ही ऐंठा है
कैसा वह ईश्वर है...!

हमको मिलाता है,
सपने दिखाता है,
ख्वाहिश जगाता है,
फिर हमसे कहता है:
'यह जगत तो मिथ्या है'
क्यूं है वो क्रूर इतना...??

क्या नहीं कोई अरमा उसे,
क्या नहीं पता उसे,
दर्द कितना होता है
दिल जब कोई रोता है;

क्या उसे दिल नहीं...???
काश
न मिले कभी
उस ईश्वर को
उसका प्यार...!